________________
304
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा है, यहाँ अग्नि साध्य है और धूमत्व-हेतु पर्वतरूपी पक्ष का धर्म है। दूसरे शब्दों में, अग्नि साध्य है, धूम हेतु है और पर्वत पक्ष है, अतः, बौद्धों के अनुसार, हेतु की विशेषता इसी में है कि वह पक्ष में अवश्य हो। ज्ञातव्य है कि जहाँ साध्य की सिद्धि की जाती है, वह पक्ष कहलाता है। हेतु यदि पक्ष में विद्यमान न हो, तो वह पक्ष का धर्म कहलाने योग्य नहीं बनता है। हेतु कहीं ओर हो, पक्ष कहीं ओर हो, तो साध्य की सिद्धि नहीं होती है, यथा'शब्द: नित्यः चाक्षुषत्वात् यहाँ शब्द नामक पक्ष में चक्षु ग्राह्यत्व हेतु विद्यमान नहीं है। चूंकि शब्द श्रोत्र-ग्राह्य हैं, अतः, यह चाक्षुषत्व ऐसे पक्ष का धर्म नहीं कहला सकता। जो यथार्थ हेतु होता है, वह पक्ष का धर्म होता है, परंतु शब्द में चाक्षुषत्व के नाम का धर्म नहीं होता है, अतः, चाक्षुषत्व से शब्द की नित्यता की सिद्धि नहीं हो सकती है। बौद्धों के अनुसार, हेतु का पक्ष में होना- यह हेतु का पहला लक्षण है। 45 2. सपक्षसत्व - जहाँ पर धुआँ और आग साथ-साथ देखे जाते हैं. उसको सपक्षसत्व कहते हैं। सपक्षसत्व, अर्थात् अपने पक्ष में दोनों को होना चाहिए, अर्थात् अपने पक्ष में साध्य और हेतु- दोनों की सत्ता होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, जहाँ पर भी साध्य की सिद्धि की जा रही है, या जहाँ पर हेतु और साध्य की व्याप्ति बता रहे हैं, जैसे - रसोईघर, वहाँ हेतु अर्थात् धुएँ का होना जरूरी है, पाकशाला अर्थात् सपक्ष हो गया, व्याप्ति सार्वकालिक होती है। जैसा धुआँ रसोईघर में है, वैसा ही धुआँ पर्वत पर हो, तो ही साध्य की सिद्धि हो सकती है; किन्तु रसोईघर से भिन्न धुआँ हो, तो सिद्धि नहीं होगी, यथा- शीतऋतु में जलाशय पर दिखाई देने वाला धुआँ, रसोईघर जैसा धुआँ नहीं होता है, अतः, उनसे साध्य की सिद्धि भी नहीं होती है। सपक्षसत्व में पक्ष में अग्नि के सद्भाव के साथ-साथ धुएँ का भी सद्भाव अवश्य होना चाहिए; किन्तु 'शब्द: नित्यः श्रावणत्वात् शब्दत्ववत्'- प्रभाकर इस प्रकार, जो अनुमान प्रस्तुत करते हैं, उसमें श्रावणत्व-हेतु नित्यत्व-धर्म वाले आकाश में जिस प्रकार व्यावृत्त है, उसी प्रकार यथार्थ-हेतु भी सपक्ष में व्यावृत्त हो ही, यह आवश्यक नहीं है। हेतु का मात्र सपक्ष में विद्यमान होना ही हेतु का दूसरा लक्षण है। 3. विपक्ष-असत्व - पक्ष का विपक्ष जलाशय में असत्व अर्थात् अभाव होना चाहिए। जहाँ आग का अभाव हो, वहाँ धुएँ का भी अभाव होना विपक्ष
443 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 415 444 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 415
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org