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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 303 जैन - रत्नप्रभसूरि रत्नाकरावतारिका में त्रिरूप हेतु-लक्षण और पंचरूप हेतु-लक्षण का खण्डन करते हैं। इसी सम्बन्ध में डॉ. धर्मचन्द जैन 'बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा' नामक पुस्तक में लिखते हैं- 'जैन-दर्शन में त्रैरूप्य एवं पाँच रूप्य का निरसन कर हेतु का एक ही लक्षण स्वीकार किया गया है और वह है- उसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव। साध्य के अभाव में हेतु का न रहना ही अविनाभाव है। अविनाभाव के लिए जैन–दार्शनिकों ने अन्यथानुपपत्ति शब्द का भी प्रयोग किया है। समस्त जैन-दार्शनिक साध्य के साथ अविनाभाव या अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का एकमात्र लक्षण प्रतिपादित करते हैं। जैन-दार्शनिकों का मंतव्य है कि यदि हेतु में साध्य के साथ अविनाभावित्व है, तो त्रैरूप्य एवं पाँच रूप्य के अभाव में भी हेतु साध्य का गमक होता है और यदि उसमें अविनाभावित्व नहीं है, तो त्रैरूप्य एवं पाँच रूप्य के होने पर भी वह साध्य का गमक नहीं होता है। बौद्धों का पूर्वपक्ष - ___इस सम्बन्ध में बौद्धों के पूर्वपक्ष को प्रस्तुत करते हुए डॉ. धर्मचन्द जैन लिखते हैं- 'बौद्ध-दार्शनिक भी हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव-रूप प्रतिबन्ध तो स्वीकार करते ही हैं तथा उसके अभाव में हेतुओं को हेत्वाभास कहते हैं; किन्तु वे अविनाभाव की परिसमाप्ति त्रिरूपता में करते हैं। उनका मंतव्य है कि जो हेतु त्रिरूपसम्पन्न होता है, वही साध्य का अविनाभावी होकर साध्य का ज्ञान कराता है। 42 रत्नाकरावतारिका में बौद्धों एवं नैयायिकों का पूर्वपक्ष - रत्नाकरावतारिका में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों के त्रिलक्षण एवं नैयायिकों के पाँच लक्षणों का उल्लेख निम्नानुसार करते हैंबौद्धों के हेतु के त्रिलक्षण एवं नैयायिकों के पंचलक्षण का विवेचन 1. पक्षधर्मत्व - ज्ञातव्य है कि हेतु का पक्ष में होना ही पक्षधर्मत्व कहलाता है। अनुमान में निर्देशित हेतु का पक्ष में होना अवश्यम्भावी है और पक्ष में होने पर ही वह पक्ष का धर्म कहलाता है। जब हम ऐसा कथन करते हैं कि 'पर्वतो वहिमान् धूमात्', अर्थात् धूमवान् होने से पर्वत वहिमान् 441 देखें-बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचन्द जैन, पृ. 220. 442 देखें-बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचन्द जैन, पृ. 220. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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