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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
जैन - दार्शनिकों ने इसी लक्षण द्वारा हेतु के अन्वय एवं व्यतिरेकदोनों रूपों को ग्रहण कर लिया है। अन्वय का ग्रहण वे हेतु के तथोपपत्ति-रूप द्वारा करते हैं तथा व्यतिरेक का ग्रहण अन्यथानुपपत्तिरूप द्वारा करते हैं। साध्य के अभाव में हेतु का अभाव अन्यथानुपपत्ति- प्रयोग है तथा साध्य के होने पर ही हेतु का होना तथोपपत्ति - प्रयोग है । 436
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रत्नाकरावतारिका में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि 'साध्य के साथ निश्चितान्यथानुपपत्ति- यही एकमात्र हेतु का लक्षण मानते हैं। वे 'न तु त्रिलक्षणकादिः' सूत्र से बौद्धों द्वारा मान्य हेतु के 'त्रिलक्षण' और नैयाथिकों द्वारा मान्य हेतु के पाँच लक्षण को अनावश्यक मानते हैं । 437
बौद्धों का पूर्वपक्ष -
बौद्ध - दार्शनिकों का यह मंतव्य है कि जो पक्षधर्मत्व, सपक्ष - सत्व और विपक्ष-असत्व- इन तीन लक्षणों से युक्त हो, वही हेतु कहलाता है
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वहीं दूसरी तरफ, हम यह देखते हैं कि सूत्र में उल्लिखित आदि शब्द से यौगिक (नैयायिक और वैशेषिक) बौद्धों के त्रिलक्षण सहित अबाधित विषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व- इन दो लक्षणों को मिलाकर हेतु को पाँच लक्षणों वाला प्रतिपादित करते हैं । 139
डॉ. धर्मचन्द जैन बौद्ध - प्रमाण - मीमांसा की जैन- दृष्टि से समीक्षा पुस्तक में लिखते हैं कि बौद्ध एवं जैन- दार्शनिकों में अनुमान -प्रमाण के संबंध में सबसे अधिक विवाद हेतु लक्षण को लेकर है। बौद्ध- दार्शनिक हेतु में पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व एवं विपक्षासत्व- इन तीन रूपों का होना आवश्यक मानते हैं। जो हेतु इन तीन रूपों से युक्त नहीं होता, उसे वे असत् हेतु अथवा हेत्वाभास कहते हैं । पक्षधर्मत्व का अर्थ है- धूमादिरूप हेतु का पक्ष, अर्थात् वह्नि विशिष्ट पर्वतादि में रहना, सपक्षसत्व का अर्थ है- धूमादि हेतु का महानस आदि सपक्ष में रहना एवं विपक्षासत्व का अर्थ है- उस हेतु का जलाशय आदि विपक्ष में नहीं रहना ।' 440
436 देखें – बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन- दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचंद जैन
437 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 414
438 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 414
439 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 415
440
देखें - बौद्ध प्रमाण - मीमांसा की जैन- दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचंद जना, पृ. 218, 219
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