________________
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
301
इतर (अन्य) पदार्थों के साथ अन्यथानुपपत्ति से ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञानादि में हेतु के इस लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं होती।
पर्वतो वह्निमान् धूमात् महानसवत् - इस अनुमान में धूम-हेतु, साध्य-अग्नि के साथ अन्यथानुपपत्ति वाला है। यहाँ धूम- ये हेतु का लक्षण घटित होने के कारण ही वह हेतु कहलाता है। इसी प्रकार, साध्य (अग्नि) से इतर (अन्य) जो घट-पट आदि पदार्थ हैं, इनका चाक्षुष-प्रत्यक्षरूप ज्ञान होता है। यदि घट-पट आदि पदार्थ नहीं हों, तो उन विषयों का चाक्षुष-ज्ञान (प्रत्यक्ष) भी नहीं होगा, अतः, यह कहा भी जाए कि प्रत्यक्ष ज्ञान में भी घट-पट आदि के साथ अन्यथानुपपन्न नामक लक्षण पाया जाता है, लेकिन वह हेतु नहीं कहलाता है, क्योंकि परोक्ष वस्तु को सिद्ध करने में जो अविनाभाव-संबंध वाला हो, वही हेतु बनता है। प्रत्यक्ष में साक्षात् पदार्थ को दिखाई देने से हेतु-हेतुमद्भाव नहीं होता है। वस्तुतः, अनुमान से जिसे सिद्ध किया जाता है, ऐसे साध्य के साथ ही जिसका अविनाभाव-संबंध निश्चित हो, वही हेतु कहलाता है।
डॉ. धर्मचन्द जैन 'बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा नामक पुस्तक में लिखते हैं कि जैन-दर्शन में सर्वप्रथम सिद्धसेन के न्यायावतार में अन्यथानुपपत्ति को हेतु का लक्षण कहा गया है। संभव है, सिद्धसेन के पूर्व भी किसी अन्य जनो-आचार्य ने हेतु का लक्षण अन्यथानुपपन्नत्व या अविनाभावित्व प्रतिपादित किया हो, किन्तु उसका उल्लेख सम्प्रति अनुपलब्ध है। हेतु-लक्षण की यह परिभाषा माणिक्यनन्दी, देवसूरि, हेमचन्द्रादि उत्तरवर्ती जैन-दार्शनिकों द्वारा भी अपनायी गई है। इन दार्शनिकों ने अकलंककृत 'निश्चय' अथवा 'निश्चित' शब्द के प्रयोग का भी हेतु-लक्षण में समावेश कर लिया है, यथा- माणिक्यनन्दी एवं हेमचन्द्र के अनुसार, जिसका साध्य के साथ अविनाभावित्व निश्चित हो, वह हेतु है। देवसूरि के शब्दों में, निश्चित-अन्यथानुपपत्तिरूप एक लक्षण वाला हेतु होता है।435
431 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 413 47 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 413, 414 433 देखें - अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोलक्षणमीरितम् - सिद्धसेन-न्यायावतार, 22 434 देखें - साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः। - परीक्षामुख, 3.11 435 देखें - निश्चितान्यथानुपपत्येक लक्षणो हेतुः । प्रमाणनयतत्वालोक 3.11
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org