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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
अध्याय-11 बौद्धों के विलक्षण हेतु की समीक्षा
प्रमाणनयतत्त्वालोक की रत्नाकरावतारिका नामक टीका के तीसरे परिच्छेद में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि ने हेतु-लक्षण की समीक्षा की है। प्रमाणनय तत्त्वालोक के तृतीय परिच्छेद के ग्यारहवें सूत्र में हेतु का लक्षण इस प्रकार, दिया गया है- 'निश्चितान्यथानुपपत्येक लक्षणो हेतुः', अर्थात् निश्चित रूप से साध्य के बिना नहीं होना, यही एकमात्र हेतु का लक्षण है। (निश्चित-निश्चित रूप से, अन्यथा-साध्य के बिना, अनुपपत्ति- नहीं होना, यही हेतु का एकमात्र लक्षण है)। निश्चित ही साध्य के बिना जिसका अस्तित्व संभव न हो, अर्थात् जो साध्य के बिना कदापि नहीं होता हो, वही हेतु कहलाता है,430 जैसे- अग्नि (साध्य) के बिना धूम कदापि संभव नहीं है, अर्थात् आग के सिवाय धुआँ अन्य किसी से होता ही नहीं है, अतएव धूम हेतु है। इसमें मुख्यता हेतु की उपलब्धि की है। हेतु का ग्रहण होने पर ही साध्य का अनुमान होता है। हेतु-धुएँ के सद्भाव में साध्य-अग्नि का सद्भाव तथा साध्य-अग्नि के अभाव में हेतु-धुएँ का अभाव- यही एकमात्र हेतु का लक्षण है, अर्थात् जो जिसके बिना नहीं होता, उसका वही हेतु है, जैसे-माँ के बिना पुत्र नहीं होता, पुत्र है, तो माँ अवश्य होगी ही। जिसके बिना अन्य किसी भी प्रकार से साध्य की सिद्धि संभव नहीं होती हो, वही हेतु कहा जाएगा, अन्य किसी भी रूप में हेतु का अस्तित्व सिद्ध होता ही नहीं है।
यहाँ प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या हेतु कहीं अति-व्याप्त होता है, तो कहीं अल्पव्याप्त भी होता है ? यद्यपि मूल सूत्र में 'साध्य के बिना- ऐसा स्पष्ट उल्लेख तो नहीं किया गया है, किन्तु हेतु का प्रसंग होने के कारण यहाँ अन्यथानुपपत्ति साध्य-धर्म के साथ ही होना चाहिए, अर्थात् हेतु को साध्य के बिना होना ही नहीं चाहिए, इसलिए साध्य से
430 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 413
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