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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा क्षणिकवाद की समीक्षा उपलब्ध होती है। 2 यद्यपि मूल कारिकाओं में आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट रूप से बौद्धों का नाम नहीं लिया है, किन्तु उनके अनेक मंतव्यों को एकान्तवाद की कोटि में रखकर उनकी सामान्य रूप से समीक्षा की गई है, जैसे तिहत्तरवीं कारिका में प्रत्यक्ष की निर्विकल्पता, संतानकारिता में अवाच्य-एकान्त आदि की समीक्षा की है। जैसा कि हम जानते हैं, आप्त-मीमांसा मूलत: अनेकान्तवाद की स्थापना का प्रयत्न करता है, किन्तु अनेकान्तवाद की स्थापना के इस प्रयत्न में वह विभिन्न एकान्तवादों की समीक्षा करता है। यह स्पष्ट है कि एकान्तवाद के रूप में आप्त-मीमांसा में अनेक बौद्ध-मंतव्यों की संक्षिप्त एवं सामान्य समीक्षा उपलब्ध हो जाती है, किन्तु यह बात विचारणीय है कि क्या बौद्धदर्शन मूलतः एकान्तवादी है ? पं. दलसुखभाई मालवणिया का स्पष्ट रूप से यह कथन है कि एकान्तवाद के खंडन में बौद्ध और जैन-दोनों ही सहमति रखते थे। बौद्धों और जैनों में मूल अंतर इस बात को लेकर है कि बौद्धों ने एकान्तवाद को निषेध मुख से स्वीकार किया, जबकि जैनों ने उन एकान्तवादों की समीक्षा करते हुए अपनी अनेकान्त-दृष्टि से उन्हें समन्वित करने का प्रयत्न भी किया। आप्त-मीमांसा में समन्तभद्र ने बौद्धों के जिन-जिन मंतव्यों की समीक्षा की है, उन्हें एकान्त मानकर ही की है। आप्त-मीमांसा की टीकाओं में अकलंक की अष्टशती और विद्यानंद की अष्टसहस्री प्रसिद्ध है। इन ग्रन्थों में बौद्ध-दर्शन की मान्यताओं की विस्तृत समीक्षा उपलब्ध होती है। अष्टशती और अष्टसहस्री में तार्किक रूप से बौद्धदर्शन के नैरात्म्यवाद, संततिवाद, क्षणिकवाद, विज्ञानाद्वैतवाद, शून्याद्वैतवाद, एकान्तअवक्तव्यता एवं प्रमाणशास्त्रीय कुछ मान्यताओं, जैसेप्रत्यक्ष की निर्विकल्पता, प्रमाण एवं प्रमाणफल का अद्वैत आदि की विस्तृत समीक्षा उपलब्ध हो जाती है, किन्तु मेरे शोध का विषय रत्नाकरावतारिका होने से अष्टशती और अष्टसहस्री में किस रूप में बौद्ध-मंतव्यों की समीक्षा है, इसकी विस्तृत चर्चा को यहाँ विषयान्तर ही माना जाएगा। मैंने यहाँ संकेत मात्र कर दिया है, जिससे यह ज्ञात हो सकेगा कि रत्नाकरावतारिका की रचना के पूर्व भी जैन-दार्शनिक, बौद्ध-मंतव्यों की समीक्षा करते रहे हैं और हमें यह मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने बौद्धदर्शन की अपनी समीक्षा में जैन-पूर्वाचार्यों के तर्कों का पूरा लाभ उठाया है।
22 आप्तमीमांसा, कारिका 51
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