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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
यहाँ बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि उत्पाद-व्यय और धौव्य परस्पर विरोधी हैं, अतः, ऐसा कैसे माना जा सकता है कि वस्तु उत्पाद-व्यय-धर्मात्मक भी है और धौव्यात्मक भी है। चूँकि उत्पत्ति, व्यय और ध्रौव्यता- ये तीनों भिन्न-भिन्न हैं, अतः, आप जैनों का वस्तु का त्रयधर्मात्मक मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता है। जैन - इसके उत्तर में, जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि आपका यह कथन उचित ही नहीं है। उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य कथंचित् एक-दूसरे से भिन्न हैं, किन्तु एकान्तरूप से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि शून्य (अभाव) से न तो उत्पत्ति संभव है और न नाश का ही पूर्ण विनाश होता है। यदि उत्पाद के पूर्व भी वस्तु की अन्य पर्याय के रूप में सत्ता रही हुई है और नाश के बाद भी वस्तु की अन्य पर्याय के रूप में सत्ता रहती है, तो फिर वस्तु को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त मानने में क्या आपत्ति है ? उत्पाद और व्यय भी चाहे भिन्न-भिन्न हों, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से पूर्णतः भिन्न नहीं हैं। असत से किसी भी प्रकार की उत्पत्ति संभव नहीं है और बिना उत्पत्ति के विनाश भी संभव नहीं है। उत्पत्ति के लिए पूर्व में किसी सत्ता को स्वीकार करना आवश्यक है, अन्यथा उत्पत्ति किससे होगी? इसी प्रकार, विनाश भी पूर्ण नाश नहीं है, उसमें द्रव्य तो बना ही रहता है, जैसे- घट की उत्पत्ति के पूर्व मिट्टी और घट के विनाश के बाद भी मिट्टी तो रहती ही है। अतः, वस्तु को एकान्त-नित्य या एकान्त-अनित्य मानना उचित नहीं है। इस प्रकार, हम जैनों के अनुसार तो पदार्थ एकान्त-नित्य और एकान्त-अनित्य न होकर नित्यानित्य ही सिद्ध होता है। 25
बौद्धों का पूर्वपक्ष - रत्नाकरावतारिका में प्रमाणनयतत्त्वालोक के पंचम परिच्छेद के आठवें सूत्र की टीका में बौद्धों का यह पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है कि वस्तु को परद्रव्य आदि की अपेक्षा से असत्व अर्थात् अभावरूप मानना उचित नहीं है। वस्तु स्वद्रव्य की अपेक्षा से अस्तिरूप हैयह बात तो बौद्धों को स्वीकार है, किन्तु परद्रव्य की अपेक्षा से वस्तु नास्तिरूप है- यह बात बौद्धों को स्वीकार नहीं है। 25
जैन - बौद्धों की इस मान्यता की समीक्षा करते हुए रत्नप्रभसूरि लिखते हैं कि यदि वस्तु में परद्रव्य का असत्व स्वीकार नहीं किया जाएगा,
424 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 742 425 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 743, 744 426 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 747
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