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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा भाव का उसमें अभाव होने से उनकी अपेक्षा नास्तित्व-गुण है, अतः, वस्तु न तो आप बौद्धों के समान एकान्त-क्षणिक है और न वेदान्तियों के समान एकान्त - नित्य है । यहाँ जैन- दार्शनिक अपने पक्ष की सिद्धि के लिए कहते हैं कि कोई भी द्रव्य अपनी पर्यायों के रूप में ही उत्पन्न होता है और नष्ट होता है, परन्तु द्रव्यरूप से न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। उदाहरण के रूप में, मृत्तिका - पिण्ड से घट उत्पन्न होता है और घट का नाश होने पर कपाल की उत्पत्ति होती है, किन्तु मृत्तिका - पिण्ड, घट और काल- इन तीनों अवस्थाओं में मृत्तिकारूप द्रव्य तो समान ही रहता है। व्यक्ति में बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था - तीनों स्पष्ट रूप से उद्भूत होती हैं । बाल्यावस्था नष्ट होकर युवावस्था उत्पन्न होती है और युवावस्था नष्ट होकर वृद्धावस्था उत्पन्न होती है, किन्तु इन सब अवस्थाओं में भी व्यक्ति तो वही रहता है, अतः, वस्तु केवल उत्पाद-व्यययुक्त नहीं है, अपितु वह धौव्ययुक्त भी है। पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, किन्तु द्रव्य तो वही रहता है। 122 296 बौद्ध जैनों की इस स्थापना के विरोध में बौद्ध - दार्शनिकों का कथन है कि जिस प्रकार अंगुली में जो नाखून उत्पन्न होता है, वह अन्त में काटकर फेंक देने पर नष्ट हो जाता है, फिर भी व्यवहार में ऐसा कहा जाता है कि नाखून फिर से आ गया, किन्तु वह अन्वय की प्रतीतिरूप ही है, यथार्थ नहीं है, क्योंकि जो नाखून उत्पन्न होकर नष्ट हो चुका है, वह पुनः उत्पन्न नहीं होता है, अतः, वस्तु केवल उत्पाद - व्ययरूप है, उसमें अन्वय (एकात्मकता) या धौव्यता मानना भ्रान्त है । बालक देवदत्त, युवा देवदत्त और वृद्ध देवदत्त में बालपन, युवापन और वृद्धपन वस्तुतः अन्वयरूप ही हैं, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि से यह सिद्ध होता है, अतः, आप जैनों का यह मानना उचित नहीं है कि द्रव्य और उसकी पर्यायों में अन्वय देखा जाता है। पर्यायों की अपेक्षा वस्तु में उत्पाद - व्यय है और द्रव्य की अपेक्षा से धौव्यत्व है- यह आप जैनों की मान्यता उचित नहीं है। हम बौद्धों का यह मानना है कि भिन्न-भिन्न पर्यायों में जो अन्वय देखा जाता है, वह भ्रान्त है, यह वास्तविक नहीं है। प्रत्येक पर्याय एक-दूसरे से भिन्न है और यह पर्याय ही द्रव्य है, पर्याय से पृथक् द्रव्य नहीं है 423 422 'रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 742 423 'रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 742 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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