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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा सहकारी - कारण - साकल्य की उपस्थिति होने पर धर्मी में भेद मानने का प्रसंग उपस्थित होगा । 120 जैन इस पर जैन- दार्शनिकों का कहना है कि क्या कारण- साकल्य की उपस्थिति में धर्मी द्रव्य में अर्थक्रियाकारित्व का गुण आ जाता है और कारण - साकल्य के अभाव में वह गुण नहीं रहता है ? किन्तु ऐसा मानना तो उचित नहीं है । सहकारी - कारणों की उपस्थिति में चाहे कार्य होता हो और उनकी अनुपस्थिति में चाहे कार्य नहीं भी होता हो, किन्तु धर्मी द्रव्य में अर्थक्रियाकारित्व का गुण तो दोनों स्थितियों में भी बना रहता है। इस प्रकार, यह सिद्ध होता है कि धर्मी द्रव्य चाहे एकान्ततः नित्य नहीं हो, किन्तु वह एकान्ततः अनित्य भी सिद्ध नहीं होता है। इस प्रकार,, रत्नप्रभसूर यह सिद्ध करते हैं कि आप (बौद्धों) की एकान्त - अनित्यता या क्षणिकता की अवधारणा उचित नहीं है। वस्तुतत्त्व कथंचित्- नित्य और कथंचित् — अनित्य ही है । द्रव्य के उत्पाद - व्ययरूप स्वभाव के कारण कथंचित्-अनित्यता है और धौव्य-स्वभाव के कारण कथंचित् - नित्यता भी है और इस प्रकार, अपेक्षा - भेद से कथंचित्-नित्यता और कथंचित् - अनित्यता में कोई विरोध भी नहीं है। 21 जैन- दार्शनिक रत्नप्रभसूरि का कथन है कि वस्तुतत्त्व अभावात्मक - गुणों से भी युक्त रहता है, जैसे गाय में गोत्व - गुण का सद्भाव और अश्वत्व - गुण का अभाव होता है । वस्तु में स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से अस्तित्व - गुण है और वस्तु में परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का अभाव होने से नास्तित्व- गुण भी है । यद्यपि अस्तित्व और नास्तित्व- ये दोनों प्रकार के गुण परस्पर विरोधी हैं, किंतु अपेक्षा - भेद से भावात्मक और अभावात्मक- दोनों प्रकार के गुण-धर्म वस्तु में होते हैं, लेकिन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से वस्तु असत् ही है, ऐसा भी हम जैन नहीं मानते। हम केवल इतना मानते हैं कि भावरूप वस्तु में परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का अभाव है, क्योंकि स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से वस्तु में सत्व या अस्तित्व - गुण भी है, क्योंकि परद्रव्यादि में वस्तु के अस्तित्व को नकारने की शक्ति नहीं होती है। वस्तु में परद्रव्य आदि का नास्तित्व उसको नास्तिरूप नहीं बनाता है। वस्तु में स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से अस्तित्व - गुण है और परद्रव्य, क्षेत्र, काल, 420 'रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 741 421 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 742 295 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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