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________________ 294 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा सहकारी कारणों के अभाव वाला होगा। इस प्रकार, धर्मी-द्रव्य एक नहीं रहेगा और इस आधार पर वह नित्य भी नहीं होगा।" बौद्ध - इसके प्रत्युत्तर में, प्रज्ञाकर गप्त का कथन है कि धर्मी द्रव्य धर्मों से अत्यन्त भिन्न होने से धर्मों के बदलने पर धर्मी द्रव्य बदलता नहीं हैं, वह दोनों कालों में एक ही रहता है, अतः, धर्मी द्रव्य में भेद बताकर जो आप हम पर एकान्त-अनित्यता का दोष लगाते हैं, वह उचित नहीं है। 18 जैन - इसके प्रत्युत्तर में, जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि धर्म से धर्मी द्रव्य एकान्त-भिन्न नहीं होता है। जो आप (बौद्ध) एकान्तभेद की कल्पना करते हैं, वह उचित नहीं है। धर्म और धर्मी में एकान्तभेद नहीं है, उनमें कथंचित्-भेद और कथंचित्-अभेद है। सहकारी-कारण की उपस्थिति और अनुपस्थिति में भी धर्मी-द्रव्य में अर्थक्रियाकारित्व नामक स्वभाव तो रहता ही है। उसके उस स्वभाव का नाश नहीं होता है। यह बात भिन्न है कि कारण सामान्य-साकल्य होने पर क्रिया के परिणाम होते हैं और कारण-साकल्य अर्थात् सहकारी-कारणों के अभाव में क्रियारूप-परिणाम होते हैं, किन्तु इससे द्रव्य के क्रिया-सामर्थ्य या अर्थक्रियाकारित्व में कोई भेद नहीं होता है। धर्मीद्रव्य में जो कर्तृतव-स्वभाव है, वह तो सहकारी-कारणों की उपस्थिति में और उनकी अनुपस्थिति में- दोनों ही अवस्थाओं में रहता है। अपने क्रियाकारित्वरूप स्वभाव की अपेक्षा से धर्मीद्रव्य नित्य है और सहकारी-कारण-साकल्य की उपस्थिति या अनुपस्थिति की अपेक्षा से वह भिन्न-भिन्न होने से वह कथंचित्-भेदरूप वाला, अर्थात् अनित्य भी है। बौद्ध - इसके प्रत्युत्तर में, अपने पक्ष के बचाव के लिए यदि बौद्ध-दार्शनिक यह कहते हैं कि सहकारी-कारण-साकल्य और सहकारी-कारण-वैकल्य- ऐसे परस्पर विरुद्ध धर्मों का योग होने से धर्मी एकान्त-नित्य नहीं रह सकता है, अर्थात पूर्वकाल में रहे हए सहकारी-कारण-वैकल्य से और परवर्ती-काल में होने वाले 4 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 739 418 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 740 419 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 740 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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