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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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यदि वह सहकारी-कारणों को छोड़ दे, तो स्वभाव-हानि का प्रसंग उपस्थित होता है।
यह ठीक है कि यदि स्वभाव का नाश हो जाए, तो धर्मी पदार्थ भी नित्य नहीं रहेगा और अनित्य हो जाएगा, किन्तु हम जैन-दार्शनिक स्वभाव का नाश मानते नहीं हैं। कोई भी पदार्थ सहकारी-कारणों के होने पर ही कार्य करता है और सहकारी-कारणों का अभाव होने पर कार्य नहीं करता है- ऐसा अन्वयव्यतिरेकरूप उभय-आलंबन वाला चौथा पक्ष स्वीकार करने पर तो पदार्थ के विरुद्ध-धर्मी होने का दोष आएगा, क्योंकि ऐसी स्थिति में पदार्थ को नित्य-स्वभाव वाला और सहकारी-कारणों की अपेक्षा रखने वाला- ऐसे विरोधी स्वभाव वाला मानना होगा। दूसरी ओर, यदि यह माना जाए कि पदार्थ कार्यकारी है और सहकारी-कारणों सहित है, तो फिर सहकारी-कारणों का अभाव कैसे संभव है ? सहकारी-कारणों और पदार्थों में भेद मानने पर पदार्थ की नित्यता की हानि होगी।15
बौद्ध - इस पर, बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि हम तो यह मानते हैं कि धर्मी पदार्थ किसी काल-विशेष में सहकारी-कारणों से युक्त होता है
और वही पदार्थ किसी काल-विशेष में सहकारी-कारणों से रहित भी होता है और इस प्रकार, काल-भेद के आधार पर सहकारी-कारणों के सहित और रहित होने से पदार्थ अनित्य ही है।
जैन - इस पर, जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि आप बौद्ध-दार्शनिकों की यह बात उचित नहीं है। दोनों ही कालों में धर्मी द्रव्य सदैव एक ही रहता है। काल-भेद के होने पर, अथवा सहकारी-कारणों के संयोग और वियोग की अवस्था में धर्मी द्रव्य तो सर्वथा एक ही रहता है। धर्मी द्रव्य में सहकारी-कारणों का संयोग और वियोग होता है, किन्तु उससे उसका स्व-स्वरूप अप्रभावित रहता है, आपका यह मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि धर्मी द्रव्य में सहकारी-कारणों का संयोग और वियोग मानने पर धर्मी द्रव्य एक स्वभाव वाला नहीं रहेगा और इस आधार पर वह वस्तुतः अनित्य ही सिद्ध होगा। यदि आप (बौद्ध) सहकारी-कारणों के संयोग और वियोग में धर्मी द्रव्य में भेद मानेंगे, तो एक काल में धर्मी द्रव्य सहकारी-कारणों के संयोग वाला होगा और दूसरे काल में
414 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 738 415 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 739 416 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 739
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