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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 293 यदि वह सहकारी-कारणों को छोड़ दे, तो स्वभाव-हानि का प्रसंग उपस्थित होता है। यह ठीक है कि यदि स्वभाव का नाश हो जाए, तो धर्मी पदार्थ भी नित्य नहीं रहेगा और अनित्य हो जाएगा, किन्तु हम जैन-दार्शनिक स्वभाव का नाश मानते नहीं हैं। कोई भी पदार्थ सहकारी-कारणों के होने पर ही कार्य करता है और सहकारी-कारणों का अभाव होने पर कार्य नहीं करता है- ऐसा अन्वयव्यतिरेकरूप उभय-आलंबन वाला चौथा पक्ष स्वीकार करने पर तो पदार्थ के विरुद्ध-धर्मी होने का दोष आएगा, क्योंकि ऐसी स्थिति में पदार्थ को नित्य-स्वभाव वाला और सहकारी-कारणों की अपेक्षा रखने वाला- ऐसे विरोधी स्वभाव वाला मानना होगा। दूसरी ओर, यदि यह माना जाए कि पदार्थ कार्यकारी है और सहकारी-कारणों सहित है, तो फिर सहकारी-कारणों का अभाव कैसे संभव है ? सहकारी-कारणों और पदार्थों में भेद मानने पर पदार्थ की नित्यता की हानि होगी।15 बौद्ध - इस पर, बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि हम तो यह मानते हैं कि धर्मी पदार्थ किसी काल-विशेष में सहकारी-कारणों से युक्त होता है और वही पदार्थ किसी काल-विशेष में सहकारी-कारणों से रहित भी होता है और इस प्रकार, काल-भेद के आधार पर सहकारी-कारणों के सहित और रहित होने से पदार्थ अनित्य ही है। जैन - इस पर, जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि आप बौद्ध-दार्शनिकों की यह बात उचित नहीं है। दोनों ही कालों में धर्मी द्रव्य सदैव एक ही रहता है। काल-भेद के होने पर, अथवा सहकारी-कारणों के संयोग और वियोग की अवस्था में धर्मी द्रव्य तो सर्वथा एक ही रहता है। धर्मी द्रव्य में सहकारी-कारणों का संयोग और वियोग होता है, किन्तु उससे उसका स्व-स्वरूप अप्रभावित रहता है, आपका यह मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि धर्मी द्रव्य में सहकारी-कारणों का संयोग और वियोग मानने पर धर्मी द्रव्य एक स्वभाव वाला नहीं रहेगा और इस आधार पर वह वस्तुतः अनित्य ही सिद्ध होगा। यदि आप (बौद्ध) सहकारी-कारणों के संयोग और वियोग में धर्मी द्रव्य में भेद मानेंगे, तो एक काल में धर्मी द्रव्य सहकारी-कारणों के संयोग वाला होगा और दूसरे काल में 414 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 738 415 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 739 416 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 739 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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