________________
292
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा व्याप्ति के आधार पर अनुमान भी नहीं होगा। यही कारण है कि रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों द्वारा सामान्य को मात्र काल्पनिक मानने की अवधारणा की समीक्षा की है। बौद्धदर्शन की विशेष की अवधारणा की समीक्षा
प्रमाणनयतत्त्वालोक के पंचम परिच्छेद में विशेष के दो प्रकार बताते हुए यह कहा गया है कि गुण और पर्याय की अपेक्षा से विशेष दो प्रकार का होता है। इसमें गुण द्रव्य का सहभावी-धर्म है और पर्याय द्रव्य का क्रमभावी-धर्म माना गया है। इस सूत्र की व्याख्या में रत्नाकरावतारिका में नैयायिकों और बौद्ध-मंतव्यों की समीक्षा की गई है।१४
बौद्ध-दार्शनिक जैन-मत की समीक्षा करते हए कहते हैं कि सामान्यतया द्रव्य सहकारी-कारणों की उपस्थिति में ही कार्य करता है, किन्तु सहकारी-कारणों के अभाव में भी वह जिससे निवृत्ति को प्राप्त नहीं होता है, वही उसका स्वभाव कहा जाता है, क्योंकि स्वभाव का परित्याग या वियोग संभव नहीं है। बौद्ध यह मानते हैं कि सहकारी-कारणों के नहीं होने पर भी, अर्थात् उनके अभाव में धर्मी-पदार्थ अपना कार्य नहीं कर सकता है। इसके विपरीत, यदि यह मानें कि सहकारी-कारणों के नहीं होने पर भी धर्मी नित्य-पदार्थ अपना कार्य कर सकता है, तो फिर उसे सहकारी-कारणों के साथ मिलकर कार्य करते समय स्व-स्वभाव का अर्थात् नित्यता-लक्षण का परित्याग करना पड़ेगा और यदि वह अपने नित्य स्व-स्वभाव का परित्याग करता है, तो वह नित्य नहीं हो सकता है, अतः, हम बौद्ध यह मानते हैं कि सहकारी-कारणों के अभाव में कोई नित्य-धर्मी पदार्थ भी कार्य कर नहीं सकता है- इस मान्यता में कोई दोष नहीं है। 13
जैन - इसके उत्तर में, जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि सहकारी-कारणों के समूह की उपस्थिति में ही कार्य करने के स्वभाव-विशेष वाला पदार्थ सहकारी-कारणों का त्याग करता नहीं है, अपितु उन सहकारी-कारणों को मजबूती से पकड़ कर रखता है, क्योंकि
12 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 730 41 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 737, 738
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org