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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
होता है। इसमें किसी प्रकार का कोई विरोध नहीं है। फलतः, प्रत्येक पदार्थ में सामान्य (सदृश-परिणामता) और विशेषता (विसदृश-परिणामता)दोनों संभव हो सकते हैं, इन दोनों में किसी प्रकार का कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता है। किसी भी एक विवक्षित पदार्थ में यह वस्तु अन्य वस्तु से व्यावृत्त है, भिन्न है- इस प्रकार, की व्यावृत्ति में हेतुभूत-विसदृशाकारता होती है, उसी प्रकार यह वस्तु अन्य वस्तु से या अन्य धर्म की अपेक्षा से सदृश-परिणाम वाली है- ऐसा बोध भी हो सकता है। सारांश यही है कि आप बौद्ध-दार्शनिकों को पदार्थ की मदृश-परिणामता को भी स्वीकार कर लेना चाहिए, अर्थात् सामान्य की और बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार कर लेना चाहिए।403
बौद्धों के द्वारा सामान्य को काल्पनिक मानने की समीक्षा
भारतीय-दर्शनों में न्याय–वैशेषिक-दर्शन सामान्य और विशेष को तत्त्वरूप में स्वीकार करता है। उनके अनुसार, सामान्य और विशेष की पृथक-पृथक् सत्ता है, जबकि जैन-दर्शन सामान्य और विशेष में उनकी सामान्य और विशेष को स्वीकार करते हुए भी पदार्थ से भिन्न उनकी सत्ता को नहीं मानता है। जैन-दार्शनिकों के अनुसार, वस्तु या सत्ता सामान्य विशेषात्मक है। जैन-दार्शनिकों का कहना है कि जो सामान्य है, वही विशेष है और जो विशेष है, वही सामान्य है। सामान्य और विशेष वस्तु-सत् नहीं हैं, किन्तु वस्तु का स्वरूप अवश्य हैं और इसलिए वे वस्तु से अभिन्न भी हैं और इसी आधार पर उनकी मान्यता है कि वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है। द्रव्यरूप से वस्तु सामान्य है, क्योंकि द्रव्य त्रैकालिक है, किन्तु पर्यायरूप से वस्तु विशेष ही है, क्योंकि पर्याय क्षणिक हैं। द्रव्य गुण-पर्यायात्मक या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, अतः, उसमें सामान्य और विशेष- दोनों ही निहित हैं।
- इसके विपरीत, बौद्ध-दार्शनिकों की मान्यता यह है कि वस्त क्षणिक है, प्रति समय बदलती रहती है, अतः, वे क्षणिक परिवर्तनशील वस्तु को विशेष ही मानते हैं। उनके अनुसार, सामान्य तो मात्र काल्पनिक है।
बौद्धदर्शन के चार सम्प्रदाय हैं- 1. सौत्रान्तिक 2. वैभाषिक 3. योगाचार या विज्ञानवाद, 4. माध्यमिक या शून्यवादी। इन चारों सम्प्रदायों में यद्यपि सौत्रान्तिक और वैभाषिक बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार
409 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 700
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