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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा बौद्ध बौद्ध - दार्शनिक पुनः अपने कथन की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण परिवर्तनशील है । प्रतिक्षण नई-नई (अपूर्व - अपूर्व) पर्यायें उत्पन्न होती रहती हैं। प्रतिक्षण बदलती नई पर्याय विशेष रूप में ही लक्षित होती है। कोई भी एक गाय दूसरी गाय से विसदृश (विजातीय, असमान आकार वाली) होने से भिन्न-भिन्न ही होती है और भिन्न होना - यह विशेष स्वरूप ही पदार्थ का स्वलक्षण है। इस प्रकार,, विसदृशाकारता ही पदार्थ का यथार्थ लक्षण है। जिस प्रकार जड़ और चेतन, अर्थात् जड़ता और चेतनता में विसदृशता है, उसी प्रकार अत्यन्त भिन्न पदार्थों में 'सदृश - परिणामता' (सामान्य) मानना उचित नहीं है, इसी प्रकार एक गाय दूसरी गाय से भिन्न होने से विसदृश ही होती है, दोनों गायों में सदृश - परिणामता मानना युक्तिसंगत नहीं है। 108 ―― जैन - बौद्धों के इस कथन पर जैनाचार्य बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि आप एक तरफ तो कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है और दूसरी तरफ आप विसदृशता को स्वीकार करते हैं। जब आप कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ विनश्वर स्वभाव वाला है, प्रतिक्षण नई-नई पर्याय उत्पन्न होती हैं, तो फिर यह गाय इस गाय से भिन्न है- ऐसी विसदृशता भी कैसे सिद्ध होगी ? क्योंकि प्रतिक्षण बदलती पर्याय एक-दूसरे के साथ भिन्नता का बोध भी कैसे करा सकेगी ? प्रतिसमय परिवर्तित होती हुई पर्याय को किस शब्द से वाच्य करेंगे ? उसे कौनसे शब्द का वाच्य बनाएँगे ? इस क्षण जो पर्याय है, वह अगले क्षण नहीं रहेगी, अगले क्षणवाली पर्याय उसके अगले क्षण नहीं रहेगी, तो प्रतिसमय बदलती हुई पर्यायों के लिए प्रत्येक नए-नए शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा । पुनः, जैन- दार्शनिक कहते हैं कि जैसे कोई ज्ञात विषय विचित्राकारता वाला होता है तथा वह सविकल्पक भी होता है और निर्विकल्पक भी होता है, उसी प्रकार संसार की प्रत्येक वस्तु को अपेक्षा - भेट से सामान्य - विशेषात्मक (उभयात्मक) मानने में भी कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता है। जिस प्रकार काले, नीले, लाल, श्वेत रंग का अलग-अलग ज्ञान होता है, उसी प्रकार विभिन्न विरोधी रंगों का ज्ञान एक ही चित्र में एक साथ भी होता है, उसमें कोई विरोध नहीं होता है । पुनः, एक ही ज्ञान अपने प्रथम उत्पत्तिकाल में बिना विकल्प के उत्पन्न होता है और वही ज्ञान कालान्तर में विकल्परहित बन जाता है। इस प्रकार, एक ही ज्ञान में निर्विकल्पाकारता और सविकल्पाकारता- दोनों प्रकार का ज्ञान 408 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 699, 700 Jain Education International 289 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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