________________
288
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
बोध होता है, वह आभासमात्र नहीं है, परंतु वास्तविक ही है। सदृश-परिणाम से शून्य (रहित) ऐसे विशेष पदार्थ का कोई स्वलक्षण बनता हो- ऐसा नहीं है, क्योंकि पदार्थ का विशेष लक्षण भी सामान्य के आधार पर ही प्रतिभासित होता है। आप बौद्ध सदृश-परिणाम (सामान्य) के बिना मात्र विशेषयुक्त पदार्थ को सिद्ध नहीं कर सकते हैं। विशेष में सामान्य प्रतिभासित भी नहीं होता है। सामान्य की तो स्वतंत्र सत्ता है। पदार्थ सर्वप्रथम सामान्य रूप में ही जाना जाता है, तत्पश्चात् ही वह विशेष रूप में जाना जाता है। दूसरे, आप तो संसार के प्रत्येक पदार्थ को शून्यरूप मानते हैं, तो विशेष को भी शून्यरूप ही मानना होगा, अतः, विशेष की स्वतंत्र सत्ता कैसे सिद्ध होगी ?405
बौद्ध - सामान्य का खण्डन करते हुए पुनः बौद्ध-दार्शनिक जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि से कहते हैं कि हमारे मत के अनुसार प्रतिक्षण विनश्वर पदार्थ विशेष रूप के ही लक्षित होते हैं। सामान्य तो विशेष में ही प्रतिभासित होता है। विशेष से अतिरिक्त सामान्य नाम की कोई सत्ता ही नहीं है। पदार्थ का लक्षण विशेष रूप ही है। जैनों का आपसे यह प्रश्न है कि आपके मत में पदार्थ का वास्तविक स्वरूप क्या है ?100
जैन - जैन-दार्शनिक बौद्ध-दार्शनिकों से प्रश्न करते हैं कि पदार्थ न तो एकान्त-सामान्यरूप होता है और न एकान्त-विशेषरूप होता है। दूसरे शब्दों में, पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होता है। प्रत्येक पदार्थ में कथंचित्-भिन्नता भी है, तो कथंचित-समानता भी है। यदि पदार्थ विशेष रूप में ही लक्षित होगा, तो पदार्थ की निश्चयात्मकता सिद्ध नहीं होगी, यथा- मनुष्य में मनुष्यत्व, गो में गोत्व, पट में पटत्व, घट में घटत्व आदि सामान्य धर्म रहा हुआ है, तत्पश्चात् विशेष रूप में यह जाना जाता है, जैसे- यह मनुष्य भारतीय है, यह गाय काली है, यह पट श्वेत है, यह घट मिट्टी का है। इस प्रकार, पदार्थ उभयात्मक-धर्म से युक्त होता है। जब दो गायों में या दो मनुष्यों में भिन्नता दिखानी हो, तो वहाँ विशेष धर्म ही महत्वपूर्ण होता है, जैसे- यह गाय इस गाय से भिन्न है। यह मनुष्य पाश्चात्य है और यह भारतीय है आदि ।
405 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 699 406 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 699 47 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 699
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org