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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
287 सत्ता नहीं है। संसार के प्रत्येक पदार्थ एक समान हैं। एक ही ब्रह्म में अनेकता प्रतिबिंबित होती है। इस प्रकार, तो, आप ब्रह्माद्वैतवादियों के कथन को मिथ्या नहीं कह सकते, इससे तो उनका कथन सत्य ही सिद्ध होता है। आप बौद्धों की यह मान्यता ब्रह्माद्वैतवादियों के पक्ष को ही सिद्ध करती है।
बौद्ध - ब्रह्माद्वैतवादी-मत का खण्डन करते हुए बौद्ध-दार्शनिक जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि से कहते हैं कि आपके द्वारा हमारे मत को ब्रह्माद्वैतवादियों के समान बताना समुचित नहीं है, क्योंकि ' जब जड़-चेतनरूप पदार्थों से भिन्न ब्रह्म नाम का कोई पदार्थ ही नहीं है और जब ब्रह्म नाम का कोई तत्त्व ही नहीं है, तो फिर ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि संसार के जड़ और चेतन-रूप सभी पदार्थ वास्तविक नहीं हैं, अथवा ब्रह्म का प्रतिभास (आभास) मात्र हैं, अतः, यह आप जैनों द्वारा हमारे मत को ब्रह्माद्वैतवादियों के समान बताना सर्वथा उचित नहीं है।
जैन - इस पर, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि विशेष के पक्षधर बौद्ध-दार्शनिकों की आलोचना करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार ब्रह्माद्वैतवाद के खण्डन में आपने जो यह तर्क दिया कि ब्रह्म नाम की कोई वस्तु नहीं है, उसी प्रकार आपके विरोध में हम जैनों का मंतव्य है कि सदृश-परिणामरूप सामान्य के बिना भी संसार में स्वलक्षण नाम का कोई पदार्थ ही नहीं है, तो फिर स्वलक्षण (पदार्थ का स्वलक्षण) मात्र अन्य-व्यावृत्तिरूप विशेष ही वास्तविक पदार्थ है और इस विशेष से ही सदृश-परिणाम (सामान्य) प्रतिभासित होता है- ऐसा आप (बौद्ध) का कथन भी तो उचित नहीं है। आप बौद्धों द्वारा कहा गया था कि ब्रह्म नाम का कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है। सतरूप (भावरूप) ब्रह्म के आधार पर ही चेतन-अचेतनरूप बाह्य-पदार्थ प्रतिभासित होते हैं- ऐसा आप (बौद्ध) मानते नहीं हैं, क्योंकि आपके अनुसार ब्रह्म का अस्तित्व ही नहीं है, तो हम जैनों का फिर प्रश्न है कि जड़-चेतन पदार्थ किसके आधार पर प्रतिभासित होते हैं ? यदि पदार्थ “सदृश-परिणामशून्य' अर्थात् सामान्य से रहित मात्र विशेष-रूप ही हैं, तो फिर सदृश-परिणाम का प्रतिभास किसमें होगा ? दूसरे, सदृश-परिणाम आभासमात्र है, किंतु ऐसा भी नहीं है। संसार में सदृश परिणाम की शून्यता भी नहीं है, इसलिए सदृश (सामान्य) का जो
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