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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
शबल (चितकबरी) आदि की अपेक्षा से भिन्नता होकर भी गोत्व की अपेक्षा से सदृश - परिणाम को भी धारण करती है । यही प्रत्यासत्ति - संबंध ही समान - आकार वाले में सदृशता के बोध को उत्पन्न करता है । इसी प्रकार, अतदात्मक अर्थात् असमान आकार वाले में भी, जैसे- गाय, अश्व, महिष आदि असमान आकार वाले में भी यही प्रत्यासत्ति-संबंध सदृश - परिणामता को भी उत्पन्न करता है, क्योंकि वे सभी पशुजाति के भी सदस्य हैं। तात्पर्य यह है कि आप बौद्ध जो यह तर्क देते हैं कि चाहे समान आकार वाले हो, चाहे असमान आकार वाले सभी पदार्थों में प्रत्यासत्ति-संबंध के कारण सदृश - परिणामता का बोध होता है। दूसरे शब्दों में, आप बौद्धों का मंतव्य यह है कि जो खुर, ककुद, सास्नादि - रूप प्रत्यासत्ति से सदृश - परिणाम का बोध होता है, उसी प्रकार उसी प्रत्यासत्ति-संबंध से विसदृशता का भी बोध होता है। चाहे समान आकार वाले हो या असमान - आकार वाले, सभी पदार्थों में सदृश - परिणामता का बोध होता है । आपका इस प्रकार का कथन युक्तिसंगत सिद्ध नहीं हो सकता है। परिणामस्वरूप, आप बौद्धों ने तो संसार की प्रत्येक वस्तु, चाहे वह जड़ हो, चाहे चेतन, सभी में एकरूपता मान ली, जबकि प्रत्यासत्ति - संबंध में तो सदृशता एवं विसदृशता- दोनों धर्म रहे हुए हैं। खुर, ककुद, सास्ना आदि की अपेक्षा से गायों में सदृशता भी है, तो काली, गोरी, पीली, चितकबरी की अपेक्षा से उसी गो-जाति में भिन्नता भी है। इसी प्रकार, गाय, महिष, ऊँट, गधा, अज, मनुष्य आदि में प्राणीत्व (आत्मा) के अस्तित्व की अपेक्षा से सदृशता है, तो वहीं सभी में शरीर रचना, रंग आदि की अपेक्षा से भिन्नता भी है। सभी पदार्थों में एकरूपता (सदृश - परिणामता ) स्वीकार करने में तो जड़ और चेतन के मध्य रहा हुआ भेद भी समाप्त हो जाएगा, संसार के सभी पदार्थ एक ही हो जाएंगे। फलितार्थ यह है कि आपके इस कथन से न तो आपके मत की सिद्धि होती है और न जैनमत की सिद्धि होती है, अपितु एक तीसरे ही मत अद्वैतर्वाद की पुष्टि होती है, क्योंकि अद्वैतवाद तो संसार की प्रत्येक वस्तु, चाहे वह जड़ हो, चाहे चेतन, सबको ब्रह्मस्वरूप मानता है। उनके अनुसार ब्रह्म ही सत् है, ब्रह्म के अतिरिक्त पदार्थ नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। ब्रह्माद्वैतवादी तो कहते हैं कि जिस प्रत्यासत्ति-संबंध से संसार के पदार्थ चेतन, अचेतन आदि भावों को प्राप्त होते हैं, उनका वह जड़-चेतन - स्वरूप वास्तविक नहीं है, क्योंकि वे मूलतः तो ब्रह्मस्वरूप हैं । ब्रह्म के कारण हमें चेतन-अचेतन पदार्थों का प्रतिभास (आभास ) होता है । ब्रह्म के अतिरिक्त जड़-चेतन पदार्थ की कोई स्वतंत्र
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