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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 285 होंगे, अतः, 'सदृश परिणामस्वरूप सामान्य' को छोड़कर अन्य कोई भी विषय अनुगताकाररूप प्रत्यय का विषय ही नहीं बन सकता, इसलिए तथाभूत-प्रत्यय को उत्पन्न करने में निमित्त कारण 'वासना' नहीं, अपितु 'सामान्य' ही है। इस प्रकार, से, तथाभूत-पदार्थ के ज्ञान में सामान्य ही कारण होता है, साथ ही तथाभूत-प्रत्यय के ज्ञानात्मक होने से 'सामान्य' की ही सिद्धि होती है। जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्ध-मत की समीक्षा करते हुए पुनश्च कहते हैं कि आप यह बताइए कि अनुगताकार का बोध यदि अन्य व्यावृत्तिरूप है, तो वह अन्य-व्यावृत्ति अपने-आप में असमान आकार वाले पदार्थों की होती है, या समान आकार वाले पदार्थों की होती है ? गो, अश्व, महिष, हाथी आदि में अन्य की व्यावृत्ति असमान आकार वाले पदार्थों से होती है ? या समान आकार वाले पदार्थों से होती है ? यदि आप प्रथम पक्ष में मानते हो कि अन्य की व्यावृत्ति असमान आकार वाले पदार्थ में होती है, तो फिर तो सबकी व्यावृत्ति भिन्न-भिन्न होने से अनेक व्यावृत्तियाँ होंगी। इस प्रकार, व्यावृत्ति-विशेष बन जाएगी, तो फिर पदार्थ की यथार्थता का बोध कैसे होगा? अतः, असमान आकार मानने से तो अतिव्याप्ति-दोष उत्पन्न हो जाएगा। दूसरे, यदि अन्य-व्यावृत्ति को समान आकार वाली मानेंगे, तो सब में समानता (सदृशता-परिणाम) होने के कारण आपको “सामान्य' को स्वीकार करना होगा। इस प्रकार, आप बौद्धों को तो सदृशपरिणामत्वरूप सामान्य को तो मानना ही पड़ेगा।02 जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्ध-मत की समीक्षा करते हुए पुनः यह प्रश्न उठाते हैं कि आप जो प्रत्यासत्ति-संबंध मान रहे हैं, वह प्रत्यासत्ति-संबंध क्या है ? (प्रत्यासत्ति-संबंध एक विशेष प्रकार का संबंध होता है)। आप सदृशता के आधार से प्रत्यासत्ति-संबंध मानते हैं ? या विसदृशता के आधार से प्रत्यासत्ति-संबंध मानते हैं ? अथवा आप समान आकार वाले में प्रत्यासत्ति-संबंध मानते हैं ? या असमान-आकार वाले में प्रत्यासत्ति-संबंध मानते हैं ? यदि आप यह कहते हैं कि हम तो समान आकार वाले (सजातीय) एवं असमान आकार वाले (विजातीय)- दोनों में प्रत्यासत्ति-संबंध मानते हैं, तो खुर, चार पैर आदि की अपेक्षा से गाय, ऊँट, महिष आदि में समानता होती है। इसी प्रकार, गो-जाति में काली, श्वेत, 401 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 696, 697 402 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 696 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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