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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा अनुगताकारता का बोध वासनाजन्य ही है- यह आपका कथन युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता है | 308 पुनः, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों के समक्ष यह समस्या रखते हैं कि यदि आप अनुगताकारता (सदृशाकारता) का बोध मात्र वासनाजन्य ही मानते हैं, तो यह बताइए कि क्या अतीत में अनुभवित बोध ही वासनाजन्य ज्ञान का विषय बनता है ? क्योंकि कोई भी बोध, जो पूर्व में अनुभवित हो, जाना हुआ हो, अथवा सुना हुआ हो, वही हमारे मानसिक - प्रतिबिंब (अनुगताकारता) का विषय बन सकता है। अनुगत-आकारता का बोध यदि पूर्व में अनुभवित हो, तो यही वह कालान्तर में वासनाजन्य-ज्ञान का विषय बन सकता है, किन्तु आप बौद्ध तो न तो सामान्य की सत्ता को स्वीकार करते हो, और न बाह्यार्थ की सत्ता को, तो फिर वन्ध्या-पुत्र के समान जिसका अस्तित्व ही नहीं है, वह क्या उत्पन्न करेगा ? किसी भी पदार्थ का कौनसा आकार बनेगा ? इसकी मानसिक- संकल्पना भी तभी तो यथार्थ होगी, जब आप बाह्यार्थ की तथा सामान्य की सत्ता को भी स्वीकार करेंगे। सामान्य के अनुभव के बिना अनुगत - आकार का बोध भी संभव नहीं है, अतः, वासनाजन्य ज्ञान से अनुगत - आकार का बोध हो जाता है- यह आपका कथन सर्वथा खण्डित हो जाता है। पुनः, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से यह प्रश्न करते हैं कि यदि आप अनुगताकारता (सामान्य) का बोध वासनाजन्य ही स्वीकार करते हैं, तो यह बताइए कि क्या यह वासना तथाभूत-प्रत्यय को उत्पन्न करती है ? दूसरे शब्दों में, यह गाय है, यह गाय है- इस प्रकार, के अनुगत - आकाररूप बोध को उत्पन्न करती हैं। दूसरे शब्दों में, वासना किसी न किसी पदार्थ को ही विषय बनाकर तथाभूत-प्रत्यय को उत्पन्न करती है ? किंवा, निमित्त कारण से तथाभूत-प्रत्यय को उत्पन्न करती है ? यदि आप प्रथन पक्ष को स्वीकार करते हैं कि वासना तथाभूत-प्रत्यय को विषय बनाती है और तथाभूत-प्रत्यय को विषय बनाती हुई वासना तथाभूत-प्रत्यय को उत्पन्न करती है, यदि आप यह कहते हैं कि वासना किसी पदार्थ (विषय) से बनती है और वह पदार्थ अपने ही समान किसी तथाभूत-प्रत्यय को उत्पन्न करता है, तो पदार्थ तथा वह तथाभूत-प्रत्यय विषयभूत-वासना का ज्ञान कराता है। तात्पर्य यह है कि वासना सर्वप्रथम 398 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 695, 696 399 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 696 283 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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