________________
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
जाता है। इसे ही सामान्य का बोध कहा जाता है। मान लो, मनुष्य किंवा गो, अश्व आदि किसी का भी बोध करते हैं, तो वह सिर्फ हमारी मानसिक - संकल्पना ही है, मानसिक - प्रतिबिंब है, कोई बाह्य - वस्तु नहीं है। सिर्फ संकल्पना के आधार से ही वस्तु का बोध हो जाता है। जैन- दार्शनिक कहते हैं कि आप बौद्ध समानता का ज्ञान संस्कार (विकल्प) जन्य मानते हैं और बाह्यार्थ या वस्तु की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं, किन्तु हमारी मानसिक - संकल्पना का आधार सत्तात्मक - पदार्थ ही बनता है । बिना किसी सत्-पदार्थ के हमारे मन में कभी किसी भी पदार्थ का आकार नहीं बनता है । यदि हमारे मन में गाय का कोई आकार बनेगा, तो यह निश्चित है कि कभी न कभी हमने पूर्व में गाय को प्रत्यक्ष में देखा हुआ होता है, तभी उसका संस्कार या Idea बनता है कि गाय नाम का पशु ऐसा होता है। कोई भी वस्तु की संकल्पना स्वयं की उत्पत्ति में उसके कारणभूत पदार्थ की ही अपेक्षा रखती है, यथा- अग्नि से उत्पन्न धुआँ अग्नि की ही अपेक्षा रखता है, सलिल आदि की अपेक्षा कभी भी नहीं रखता। यदि अनुगताकारता अर्थात् सदृशाकारता का बोध मात्र वासनाजन्य ही हो, तो फिर सदृशाकारता का बोध सिर्फ वासना की ही अपेक्षा रखेगा ? किन्तु ऐसा नहीं होता है, जब दो वस्तुओं की सत्ता होगी, तभी उसमें समानता या भिन्नता का बोध हो सकता है। प्रत्येक तुलनात्मक - वस्तु में कथंचित् - समानता भी रहती है, तो कथंचित्-भिन्नता भी रहती है। दो वस्तुओं में ही हम अन्तर या समानता ज्ञात कर सकते हैं। हमने एक जैसी दो गायें देखीं, उन दोनों में गोत्व की अपेक्षा से समानता (सदृशता - अनुगताकारता) है, तो अश्व, महिष आदि की अपेक्षा से अथवा सफेद, काली आदि की अपेक्षा से उनमें भिन्नता भी है। आप बौद्ध यह बताइए कि क्या वासनाजन्य ज्ञान में अनुगताकारता का बोध यथार्थ - बोध हो सकता है ? क्या पदार्थ की भिन्नता एवं समानता का बोध हो सकता है ? संस्कार क्या शून्य से बन जाएगा ? अन्ततः तो, उसके पीछे कोई न कोई सत्ता तो होना ही चाहिए, इसलिए बाह्यार्थ को आप अस्वीकार नहीं कर सकते। वासनाजन्य ज्ञान में भी कहीं न कहीं बाह्यार्थ का यथार्थ-बोध रहा हुआ है । अनेकों में जो सदृशता है, उसको आप बौद्ध वासना कहते हैं और हम जैन उसे सामान्य कहते हैं। सामान्य को छोड़कर मात्र विशेष से ही पदार्थ का यथार्थ-बोध संभव नहीं है । अन्तर्वर्ती वस्तु (चैतसिक - संकल्पना) में ही सदृशाकारता का बोध हो सकता है, किन्तु बहिर्वर्ती वस्तु अथवा बाह्यार्थ में सदृशाकारता का बोध संभव नहीं है, अतः,
282
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org