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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
पुनः, आप बौद्ध - दार्शनिक यह बताइए कि आप वस्तु का स्वरूप निश्चित करने के लिए अन्य की व्यावृत्ति करते हैं, तो आप यह सिद्ध करें कि वह अन्य की व्यावृत्ति क्या है ? अन्ततः तो, व्यावृत्ति का कोई न कोई आधार होना ही चाहिए, वह आधार क्या है ? अर्थात् अन्य की व्यावृत्ति क्या वस्तु है ? या अवस्तु है ? किंवा घट, पट आदि के समान अस्तिरूप है, या आकाश - पुष्प के समान नास्तिरूप है ? यदि आप यह कहते हो कि अन्य व्यावृत्ति 'कोई वस्तु हैं तो वह वास्तविक पदार्थ होने से गो- विशेष में या तो अन्तर्वर्ती होना चाहिए ? या बहिर्वर्ती होना चाहिए ? यदि आप अन्तर्वर्ती और बहिर्वर्ती- इन दोनों को आधार मानकर अन्य की व्यावृत्ति को वस्तु स्वरूप कहते हैं, तो इनमें दोष उत्पन्न होगा, क्योंकि यदि आप व्यावृत्ति को बहिर्वर्ती मानते हैं, अन्य की व्यावृत्ति तो स्वयं ही सामान्य रूप सिद्ध होगी और यदि आप उसे अन्तर्वर्ती मानते हैं, तो आप फिर व्यावृत्ति (निषेध) कैसे करेंगे ? फलितार्थ यह है कि यदि आप व्यावृत्ति को घट-पट आदि पदार्थों के समान वस्तु - स्वरूप या अस्तिरूप स्वीकार करते हैं, तो इसका तात्पर्य तो यही होता है कि आपने सामान्य की सत्ता को स्वीकार कर लिया है, क्योंकि वस्तु के स्वरूप में कथंचित्-विधान भी रहा हुआ है, तो कथंचित् निषेध भी रहा हुआ है, अर्थात् वस्तु में कथंचित्-भिन्नता भी है और कथंचित् - अभिन्नता भी है, यथा- गोत्व में अन्तर्वर्ती और बहिर्वर्ती- दोनों पक्ष हैं। उसमें अश्व, महिष आदि का निषेध रहा हुआ है तथा पशुत्व का विधान भी रहा हुआ है। दूसरा, यदि आप अन्य - व्यावृत्ति को असत्रूप (अवस्तुरूप) कहते हैं, तो वह असत् तो आकाश - पुष्प के समान, अथवा शशि - श्रृंग के समान, किंवा वन्ध्या-पुत्र के समान अभावरूप होगा, अभाव की व्यावृत्ति कैसे होगी ? व्यावृत्ति कभी भी सत्-पदार्थ की अथवा सद्भाव की ही होती है, अभाव की कभी व्यावृत्ति संभव ही नहीं है, अतः, असत्प कहेंगे, तो सदृशाकार (अनुगताकार) का बोध कैसे होगा ? यथा 'गाय हैं, तो इस गाय में गोत्व नाम की जो वस्तु है, इस अनुगताकार का बोध तो होना ही चाहिए, अतः आप बौद्धों का कथन युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता
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जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि आप यह कहते हैं कि अनुगताकारता का बोध अन्य - व्यावृत्ति आदि किसी भी कारण से न होकर मात्र वासना (संस्कार) से, अर्थात् हमारी मानसिक- संकल्पना से ही हो
397 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 695
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