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________________ 280 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा अंजली की प्रवृत्ति निरर्थक है, व्यर्थ का श्रम है। इसी प्रकार, आप बौद्धों का उपर्युक्त कथन किसी सार्थक तत्त्व को सिद्ध नहीं करता है, अतः, आपका उपर्युक्त कथन समुचित नहीं है। 25 __ पुनः, रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपेक्षा–भेद से दूसरे से भिन्न है, क्योंकि कोई काला है, कोई गोरा, कोई बुद्धिमान है, तो कोई मूर्ख आदि। जहाँ एक ओर व्यक्ति-विशेष में एक-दूसरे से भिन्न है, तो वहीं मनुष्य जाति की अपेक्षा से उनसे अभिन्न भी है। आप बौद्ध-दार्शनिक, अनेक विशेष व्यक्तियों में रही हुई 'अन्य-व्यावृत्ति' एक है और वह अन्य व्यावृत्ति व्यक्ति-विशेष से भिन्न स्वरूप वाली है- एना जो कहते हो, तो अन्यव्यावृत्ति तो सामान्य रूप ही तो हुई है, अतः, आप यदि सामान्य को नहीं मानेंगे, तो सामान्य की व्यावृत्ति कैसे करेंगे ? यद्यपि अन्य की व्यावृत्ति तो हम जैन भी करते हैं, जैसे- गो-जाति में मनुष्य-जाति की या मनुष्य-जाति में गो-जाति की व्यावृत्ति। इसी प्रकार, यह गाय मनुष्य आदि नहीं है, या यह मनुष्य गाय आदि नहीं है, किन्तु आप बौद्ध-दार्शनिकों की मान्यता के अनुसार तो किसी एक वस्तु के स्वरूप को या वस्तु के लक्षण को सिद्ध करना हो, तो कितनी व्यावृत्ति करना होगी ? यदि संसार की प्रत्येक वस्तु की व्यावृत्ति करेंगे, तो वस्तु का सही स्वरूप कैसे सिद्ध होगा? हम जैन जो व्यावृत्ति करते हैं, वह सीमित है, किन्तु आपकी व्यावृत्ति असीमित है। हम जैन जो कहते हैं कि वस्तु में समानता का बोध इसलिए होता है कि उसमें सामान्य का गुण रहा हुआ है। तात्पर्य यह है कि यदि आप बौद्ध-दार्शनिक व्यक्ति विशेष में भिन्न-भिन्न व्यावृत्ति करेंगे, तो वे व्यावृत्तियाँ एक हैं या अनेक हैं? सबकी व्यावृत्ति भिन्न-भिन्न होगी ? या अभिन्न होगी ? यदि आप सबकी व्यावृत्ति को एक, भिन्न और बाह्यात्मक मानेंगे, तो फिर आपने सामान्य को ही स्वीकार कर लिया है। यदि आप अभिन्न मानेंगे, तो आप व्यावृत्ति (निषेध) कैसे करेंगे ? क्योंकि अभिन्न की व्यावृत्ति नहीं होती है। जिसे हम जैन सामान्य कहते हैं, उसी को तो आप बौद्ध व्यावृत्ति कहते हो। यदि आप अन्य-व्यावृत्ति को अन्तर्गत भी नहीं मानते हैं और बाह्यात्मक भी नहीं मानते हैं, तो आपका कथन तो मात्र शब्दाडम्बररूप ही है, अर्थात् कहने तक ही सीमित है, तात्त्विक-दृष्टि से कोई सारभूत नहीं है।396 395 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 694 396 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 694 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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