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________________ 26 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा ग्रन्थ सूत्र-युग का प्रथम जैन-ग्रन्थ है और संस्कृत भाषा में निबद्ध है। यह ग्रन्थ दस अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में पंचज्ञानों, चार निक्षेपों, सप्त नयों और आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा है। द्वितीय अध्याय मुख्यतः जीव के उपयोग-लक्षण की और जीव प्रकारों की चर्चा करता है। तीसरा और चौथा अध्याय क्रमशः स्वर्ग और नरक संबंधी जैन-अवधारणाओं को प्रस्तुत करता है। पाँचवें अध्याय में मुख्य रूप से अजीव तत्त्व की तथा सत् के स्वरूप की चर्चा उपलब्ध होती है। इसके पश्चात्, अध्याय छह से लेकर दस तक क्रमशः आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष-तत्त्वों का विवेचन किया गया है। मूलसूत्रों की अपेक्षा तो इसमें हमें कहीं भी बौद्धदर्शन की मान्यताओं और उनकी समीक्षाओं का निर्देश उपलब्ध नहीं होता है। मात्र, पंचम अध्ययन में सत् के स्वरूप की जो व्याख्या है, वह बौद्ध-परंपरा से अपनी स्पष्ट भिन्नता को लक्षित करती है, किन्तु कालान्तर में लगभग पाँचवीं शताब्दी से लेकर इस पर श्वेताम्बर और दिगम्बर-परंपराओं में जो टीकाएं लिखी गई, उनमें हमें स्पष्ट रूप से बौद्ध-मंतव्यों की समीक्षा उपलब्ध हो जाती है। तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में पूज्यपाद-देवनंदी की सवार्थसिद्धि, सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थवृत्ति, अकलंक का तत्त्वार्थराजवार्तिक, विद्यानंद का तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक आदि प्रसिद्ध और प्रमुख हैं। इन टीकाओं में प्रसंगानुसार कहीं-कहीं अन्य मंतव्यों की समीक्षा उपलब्ध हो जाती है, फिर भी तत्त्वार्थ की टीकाओं में प्रायः बौद्धदर्शन या अन्य दर्शनों की समीक्षा का अभाव ही देखा जाता है। इन टीकाओं में कहीं भी बौद्धदर्शन या अन्य दर्शनों की विस्तृत समीक्षा नहीं मिलती है, जैसी कि इसी कालखण्ड के अन्य दार्शनिक-ग्रन्थों में मिलती है। मूलतः, ये टीकाएं जैन-दार्शनिक-मान्यताओं के प्रस्तुतिकरण तक ही सीमित हैं। 4. समन्तभद्र की आप्त-मीमांसा और बौद्ध-दार्शनिक-मतों की समीक्षा अनेकान्तवाद की स्थापना की दृष्टि से दिगम्बर--परंपरा के आचार्यों में समन्तभद्र का नाम सर्वोपरि है। इन्होंने अपने ग्रन्थ आप्त-मीमांसा में बौद्ध-मंतव्यों की विस्तार से समीक्षा प्रस्तुत की है। इन्होंने आप्त-मीमांसा के अतिरिक्त युक्त्यानुशासन, जीवसिद्धि, स्वयंभूस्तोत्र, स्तुतिविद्या, तत्त्वानुशासन आदि ग्रन्थों की रचना की थी, यद्यपि वर्तमान में जीवसिद्धि और तत्त्वानुशासन अनुपलब्ध हैं। रत्नकरण्डकश्रावकाचार के इनके कर्तृत्व के संदर्भ में भी अनेक प्रश्नचिह्न खड़े किए गए हैं। एक मान्यता ऐसी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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