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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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कारण किसी सीमा तक बौद्धों को भी मान्य रहा है, किन्तु द्वादशारनयचक्र में इन सामान्य-एकान्त और विशेष-एकान्त का खण्डन कर किसी अपेक्षा से अनेकान्तदृष्टि की स्थापना करने का प्रयत्न भी किया है, किन्तु मल्लवादि ने इस अवक्तव्यवाद के विपक्ष में समभिरूढ़नय का आश्रय लेकर बौद्धों की उस दृष्टि का पोषण किया है, जो यह मानती है कि द्रव्य वस्तुतः गुण-पर्यायरूप है, अन्य कुछ नहीं है। यह बात बौद्ध-मान्यता के मिलिन्द-प्रश्न से भी सिद्ध होती है। इसी प्रसंग में गुण समभिरूढ़ के विधि आदि बारह भेद भी किए गए हैं। चूँकि समभिरूढ़नय का मंतव्य गुण-उत्पत्ति से था, अतः, मल्लवादि ने ग्यारहवें अर में भूतनय का आधार लेकर यह बताने का प्रयास किया है कि वस्तु मात्र क्षणिक है। इस प्रसंग में बौद्धसम्मत निर्हेतुक विनाशवाद की स्थापना कर वस्तु की क्षणिकता को सिद्ध किया गया है और बौद्धों के समान ही प्रदीपशिखा के दृष्टांत से उस क्षणिकता का समर्थन भी किया गया है। इस प्रकार, द्वादशारनयचक्र का ग्यारहवां अर पुनः बौद्ध-क्षणिकवाद का समर्थन करता हुआ प्रतीत होता है, अतः, द्वादशारनयचक्र के बारहवें अर में क्षणिकवाद की समीक्षा की गई है और क्षणिकवाद के विरुद्ध स्थितिवाद का समर्थन किया गया है। चूंकि स्थितिवाद के विरुद्ध क्षणिकवाद खड़ा हुआ है, अतः, उसे उत्पत्ति और स्थिति, कुछ न कहकर शून्यवाद का आश्रय लिया गया है। इस प्रकार,. बारहवें अर में नागार्जुन के शून्यवाद का उत्थान है। ज्ञातव्य है कि नागार्जुन के शून्यवाद के विरुद्ध विज्ञानवादी-बौद्धों ने अपना पक्ष रखकर विज्ञानवाद की स्थापना की थी। इस प्रकार, इस अर में शून्यवाद एवं विज्ञानवाद का खंडन करके यह बतलाया गया है कि वादों का यह चक्र चलता ही रहता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि मल्लवादि का द्वादशार का नयचक्र बौद्धों के क्षणिकवाद, अपोहवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद आदि दार्शनिक-मतों की समीक्षा प्रस्तुत करता है। यद्यपि यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि द्वादशारनयचक्र में बौद्धों के जिन मंतव्यों की समीक्षा है, वे विज्ञानवाद और शून्यवाद के प्रारंभिक ग्रन्थों पर ही आधारित हैं। परवर्ती बौद्ध-दार्शनिकों द्वारा अपने पक्ष के समर्थन में जो तर्क दिए गए हैं, उनकी समग्र समीक्षा तो हमें रत्नाकरावतारिका जैसे परवर्ती प्रौढ़-ग्रन्थों में ही मिलती है। 3. तत्त्वार्थ-सूत्र की टीकाओं में बौद्धदन की समीक्षा -
__ उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र (लगभग ईसा की तीसरी शताब्दी) एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसे जैन धर्म की सभी परंपराओं में मान्यता प्राप्त है। यह
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