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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा करते हैं, तो सिद्धसेन के न्यायावतार का दिङ्नाग के प्रमाण ग्रन्थों के साथ आन्तरिक संबंध विदित हुए बिना नहीं रहता। सिद्धसेन-दिवाकर ने 'बाधविवर्जितम्' जो लक्षण दिया है, वह लक्षण भी बौद्धों के समरूप ही 2. मल्लवादि-कृत द्वादशार-नयत्रक और बौद्ध-दार्शनिक-मतों की समीक्षा - अनेकान्तवाद की स्थापना की दृष्टि से मल्लवादि का द्वादशारनयचक्र एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। दुर्भाग्य से इस ग्रन्थ की टीका तो उपलब्ध हो रही थी, किन्तु मूल ग्रन्थ का अधिकांश अंश प्रायः लुप्त ही था। यह मुनि श्री जंबुविजयजी के अथक प्रयत्नों और पुरुषार्थ का ही परिणाम है कि उन्होंने भोटभाषा में उपलब्ध बौद्ध-न्याय के ग्रन्थों और उनकी टीकाओं का आधार लेकर इस ग्रन्थ का पुनरुद्धार किया। यह ग्रन्थ बारह आरों या विभागों में बंटा हुआ है। इसमें क्रमशः भिन्न-भिन्न दार्शनिक-मतों की उनके विरोधी मतों से समीक्षा करवाकर अनेकांतदृष्टि का परिचय दिया गया है। इस ग्रंथ में बौद्ध-मत की समीक्षा निम्न रूप में उपलब्ध होती है - द्वादशारनयचक्र में सातवें अर(आरे) में वैशेषिक दर्शन की मान्यताओं का खण्डन ऋजुसूत्रनय का आश्रय लेकर बौद्ध-दृष्टिकोण से किया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ऋजुसूत्रनय मुख्य रूप से बौद्ध-दार्शनिक-दृष्टि से संबंधित है। इस प्रकार, सातवाँ अर वैशेषिकों के खंडन के साथ बौद्धों के मत की स्थापना भी करता है। इस अर के अंत में बौद्धों के अपोहवाद की स्थापना भी की गई है, फिर, द्वादशारनयचक्र में मल्लवादि ने आठवें अर में बौद्धों के अपोहवाद की समीक्षा करते हुए भर्तृहरि के व्याकरण-दर्शन के शब्दाद्वैतवाद की स्थापना की है, यद्यपि इसी अर के अंत में भर्तृहरि और उनके गुरु वसुरात का भी खण्डन किया गया है। फिर, अपोहवाद के विरुद्ध स्थापनानिक्षेप के आधार पर जातिवाद की स्थापना की गई है और इसी क्रम में सामान्य-एकान्त और विशेष-एकान्त- दोनों मतों की समीक्षा करते हुए अवक्तव्यवाद की स्थापना की गई है। अवक्तव्यवाद एकान्तदृष्टि का खण्डन करने वाला होने के 14 न्यायावतार, कारिका 1 द्वादशारनयचक्र, द्वितीय विभाग, अर 7. पृ. 547 16 द्वादशारनयचक्र, द्वितीय विभाग, अर 8. पृ. 581 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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