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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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शा
अध्याय-10 बौद्धों के सामान्य के निषेध की
अवधारणा की समीक्षा
जैनों की सामान्य की अवधारणा
रत्नाकरावतारिका के पाँचवें परिच्छेद में सामान्य और विशेष के स्वरूप का विश्लेषण किया गया हैं। जैन-दर्शन के अनुसार, वस्तु सामान्य, विशेष आदि अनेक धर्मों का समूह है। अनेक पदार्थों में एक-सी प्रतीति उत्पन्न करने वाला और उन्हें एक ही शब्द द्वारा वाच्य बनाने वाला धर्म सामान्य कहलाता है। इसके विपरीत, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में भेद कराने वाला धर्म विशेष कहलाता है। बौद्ध-दार्शनिक सामान्य की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं। वे सामान्य को मात्र कल्पनाजन्य मानते हैं। उन्हें मात्र विशेष की सत्ता अभीष्ट है। जैन-दार्शनिक सामान्य और विशेषदोनों को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है। प्रस्तुत ग्रन्थ में सामान्य दो प्रकार से प्ररूपित किया गया हैतिर्यक-सामान्य और ऊर्ध्वता-सामान्य। 1. जिसमें सब समान रूप से पाया जाए, उसको अनुवृत्ताकार-तिर्यक-सामान्य कहते हैं, अर्थात् अनुवृत्ताकारज्ञान द्वारा जो बोध होता है, वह तिर्यक-सामान्य है। 2. जिसमें एक में एक सब समा जाएँ, उसको अनुगताकार-ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, अर्थात् अनुगताकार ज्ञान द्वारा जो बोध होता है, वह ऊर्ध्वता-सामान्य है।
प्रमेयकमलमार्तण्ड के तीसरे भाग की हिन्दी व्याख्या में विदुषी आर्यिका जिनमतीजी तिर्यक-सामान्य और ऊर्ध्वता-सामान्य का वर्णन करते हुए लिखती हैं कि अनेक वस्तुओं में पाया जाने वाला समान धर्म तिर्यक-सामान्य कहलाता है, जैसे- अनेक गायों में गोत्व समान रूप से विद्यमान रहता है, इसी तरह पटों में पटत्व, मनुष्यों में मनुष्यत्व, जीवों में जीवत्व इत्यादि समान या सदृश धर्म दिखाई देते हैं, इसी को
391 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभूसरि, पृ. 692
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