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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
तिर्यक-सामान्य कहते हैं। इस सामान्य धर्म या स्वभाव के कारण ही हमें वस्तुओं में सादृश्य का प्रतिभास होता है। एक ही पदार्थ के उत्तरोत्तर जो परिणमन होते रहते हैं, उनमें उस पदार्थ का 'व्यापक रूप से जो रहना है, वह ऊर्ध्वता-सामान्य है, जैसे- स्थान, कोश, कुशल आदि परिणमन या पर्यायों में मिट्टी व्यापक रूप से रहती है। तिर्यक-सामान्य और ऊर्ध्वता-सामान्य में यह अन्तर है कि तिर्यक-सामान्य तो अनेक पदार्थ या व्यक्तियों में पाया जाने वाला समान धर्म है और ऊर्ध्वता-सामान्य क्रम से उत्तरोत्तर होने वाली पर्यायों में द्रव्य का बने रहना है, अर्थात् अपने क्रमिक-पर्यायों में एक अन्वयी द्रव्य का अस्तित्व ऊर्ध्वता-सामान्य कहलाता
है। 192
प्रस्तुत ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका में सर्वप्रथम तिर्यक-सामान्य का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। सामान्य के प्रथम भेद तिर्यक-सामान्य का स्वरूप सूत्र के माध्यम से इस प्रकार, प्रस्तुत किया गया है- "प्रति व्यक्ति तुल्या परिणतिस्तिर्यक सामान्यम, शबल शाबलेयादि पिण्डेष गोत्वं यथा", (5-4) अर्थात प्रत्येक व्यक्ति में (दूसरे व्यक्तियों की अपेक्षा) जो तुल्य (समान) परिणाम या समान धर्म है, वह तिर्यक-सामान्य कहलाता है, जैसे शबल और शाबलेय-बाडुलेय गायों में गोत्व समान रूप से रहता है। किसी भी एक व्यक्ति में दूसरे व्यक्ति के साथ जो समानता रहती है, उस समानता को तिर्यक-सामान्य कहते हैं। जिस प्रकार शबल और शाबलेयइन दोनों में गोत्व समान रूप से है, उसी प्रकार गाय से भिन्न अश्व, महिष, बैल, गधा आदि में यद्यपि गोत्व नहीं है, किन्तु पशुत्व तो सभी में समान रूप से होने के कारण इनको भी तिर्यक-सामान्य कहते हैं। यद्यपि गाय-गाय में अपेक्षा भेद से अन्तर हो भी सकता है, क्योंकि कोई गाय काली हो सकती है, तो कोई सफेद भी हो सकती है, कोई चितकबरी भी हो सकती है आदि-आदि, किन्तु गोत्व की दृष्टि से सभी गाय समान स्वरूप वाली होती हैं, अतः, उन भिन्न-भिन्न रंग की गायों में गोत्व है, उसे तिर्यक-सामान्य कहते हैं। "तिर्यक् नाम रखने का तात्पर्य यह है कि सामान्य को समझते समय जिज्ञासु को अपनी दृष्टि तिर्यक करना पड़ती है, अर्थात् कुछ समान धर्म वाली अनेक वस्तुओं को देखना होता है, इसलिए इसको तिर्यक-सामान्य कहा जाता है। शबल, शाबलेय, बाडुलेयइन तीनों में से मान लो प्रथमतः शबल गाय को देखा, तत्पश्चात् शाबलेय
392 देखें - प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग III, आचार्य प्रभाचन्द्र, सम्पादक-साध्वी जिनमतीजी
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