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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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चक्षु-इन्द्रिय की प्राप्यकारिता के संबंध में की है, किन्तु दूसरी ओर बौद्ध श्रोत्रेन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानते हैं, अतः, जैनों ने बौद्धों की समीक्षा श्रोत्रेन्द्रिय की अप्राप्यकारिता के सम्बन्ध में की और यह सिद्ध किया कि घ्राणेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय के समान श्रोत्रेन्द्रिय भी प्राप्यकारी है।390
जहाँ बौद्ध-दार्शनिक यह मानते हैं कि श्रवणेन्द्रिय दूरस्थ क्षेत्र में उच्चरित शब्दों को बिना उनका संपर्क किए ही ग्रहण कर लेती है, वहीं जैनों का कहना यह है कि श्रवणेन्द्रिय भी अपने विषय-शब्दों को उनका संस्पर्श होने पर ही जानती है, अतः, वह अप्राप्यकारी नहीं हो सकती। इसका मूल कारण यह था कि जैन-दार्शनिकों ने शब्द को ध्वनिरूप माना
और ध्वनि को पौदगलिक-रूप माना कि ध्वनि लोकाकाश में गति करते हुए संपूर्ण लोक को व्याप्त करती है, अतः, दूरस्थ उच्चरित शब्द भी ध्वनिरूप में हमारी श्रवणेन्द्रिय का स्पर्श करते हैं और उस स्पर्श के माध्यम से ही शब्दों को जानते हैं। बौद्धदर्शन में 'शब्द पौद्गलिक और गतिशील हैं- और यह अवधारणा उपस्थित नहीं थी और इसी आधार पर उन्होंने यह मान लिया था कि दूर क्षेत्रों में उच्चरित शब्दों को श्रवणेन्द्रिय बिना उनका संस्पर्श किए ही ग्रहण कर लेती है। बौद्ध-दार्शनिकों का कहना है कि चक्षुरिन्द्रिय और मन के समान ही श्रवणेन्द्रिय भी अप्राप्यकारी ही हैं, श्रवणेन्द्रिय द्वारा असन्निकृष्टः शब्द का ही ग्रहण होता है, तो शब्द में दूर, निकट आदि का व्यवहार संभव नहीं हो सकता है। जिस प्रकार चक्षुरिन्द्रिय का अपने विषय में सन्निकर्ष न होने पर भी वह दूर स्थित वृक्ष आदि को जान लेती है, उसी प्रकार से श्रवणेन्द्रिय भी दूरस्थ क्षेत्र में उच्चरित शब्द को ग्रहण कर लेती हैं। यही कारण है कि हमें शब्दों में भी दूरी और समीपता का बोध होता है। जिस प्रकार प्रकाश के कारण दूर स्थित रूप का चक्षु में अभिघात होता है, उसी प्रकार दूर स्थित शब्द का उसकी तीव्रता आदि के कारण श्रवणेन्द्रिय में अभिघात होता है, अतः, बौद्धों के अनुसार श्रवणेन्द्रिय अप्राप्यकारी है। बौद्धों के इस पूर्वपक्ष का उल्लेख हमें उपलब्ध बौद्ध-न्याय के ग्रन्थों में देखने को नहीं मिला: किन्त दिगम्बर जैनाचार्य कुमुदचंद्र द्वारा रचित न्याय-कुमुदचंद्र तथा श्वेताम्बर-ग्रन्थ वादिदेवसूरिकृत स्याद्वादरत्नाकर में, अभयदेवकृत सन्मतितर्क की तत्त्वबोध-विधायिनी टीका में एवं रत्नप्रभ की रत्नाकरावतारिका में मिलता है। यहाँ इसी आधार पर उसका प्रस्तुतिकरण किया गया है और
390 देखें - भारतीय-दर्शन में प्राप्याकारित्ववाद, आम्बिकादत्त शर्मा, पृ. 148, 147
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