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________________ 274 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा बन्द कमरे में प्रवेश कर जाती है, अतः घ्राणेन्द्रिय के समान श्रवणेन्द्रिय भी प्राप्यकारी है | 388 बौद्धों के द्वारा मान्य श्रवणेन्द्रिय के अप्राप्यकारित्व की समीक्षा भारतीय-दर्शन में प्राप्याकारी और अप्राप्यकारी की अवधारणा विशेष रूप से विवाद का विषय रही है। जहाँ न्याय-वैशेषिक दर्शन यह मानता है कि सभी इन्द्रियाँ अपने विषयों को संस्पर्श करके ही जानती हैं, वहीं बौद्ध - दार्शनिक पाँच इन्द्रियों में से दो इन्द्रियों 1. श्रवणेन्द्रिय और 2. चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानते हैं और इसके विपरीत, तीन इन्द्रियों अर्थात् 1. स्पर्शनेन्द्रिय 2. नासिका 3. रसना - इन तीन इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं, जबकि जैन- दार्शनिक इन दो में से भी मात्र चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानते हैं और शेष चार इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं। जैन- दार्शनिकों ने जहाँ एक ओर नैयायिकों के चक्षुरिन्द्रिय के प्राप्यकारित्व की समीक्षा की, वहीं उन्होंने बौद्धों के श्रवणेन्द्रिय के अप्राप्यकारी होने की भी समीक्षा की है। चूँकि हमारे शोध का विषय मुख्य रूप से बौद्धदर्शन की रत्नाकरावतारिका में की गई समीक्षा से ही संबंधित है, अतः, यहाँ तक नैयायिकों द्वारा चक्षुरिन्द्रिय के प्राप्यकारित्व की समीक्षा न करके मात्र बौद्धों द्वारा जो श्रवणेन्द्रिय को अप्राप्यकारी माना है, उसकी ही समीक्षा करेंगे और यह देखेंगे कि जैन- दार्शनिक किन आधारों पर श्रवणेन्द्रिय को प्राप्यकारी सिद्ध करेंगे । निष्कर्ष - भारतीय - दर्शन में प्राप्यकारित्व में अम्बिकादत्त शर्मा लिखते हैंइस प्रकार से हम देखते हैं कि प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व को लेकर भारतीय - दार्शनिक जैन, बौद्ध और न्याय-वैशेषिक दर्शन के सिद्धान्त में भिन्नता है । यद्यपि सामान्यतया सभी दार्शनिक यह स्वीकार करते हैं कि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण करके ही जानती हैं, किन्तु फिर भी यह मूल प्रश्न रहा है कि क्या इन्द्रियों का अपने विषयों से निकटस्थ रूप में संस्पर्श होता है, या वे दूर से ही उन्हें ग्रहण कर लेती हैं। जहाँ एक ओर न्याय - दर्शन पाँचों इन्द्रियों और मन को प्राप्यकारी मानता है, वहीं जैन- दर्शन भी मन एवं चक्षु के अतिरिक्त शेष चारों इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानता है, अतः, जैन दर्शन ने नैयायिक आदि की समीक्षा मात्र 389 रत्नाकरावतारिका, भाग I (एल.डी. संस्करण), रत्नप्रभसूरि, पृ. 159 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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