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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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किन्तु वास्तव में तो श्रवणेन्द्रिय भी घ्राणेन्द्रिय या स्पर्शनेन्द्रिय के समान ही दिग्देश का ज्ञान करने पर भी प्राप्यकारी ही सिद्ध होती है। दूसरे, गन्ध और वाय भी यात्रा करके ही घाणेन्द्रिय या स्पर्शनेन्द्रिय के पास आती है। गन्ध और स्पर्श में भी दिग्देश का व्यवहार तो है। यह हवा इधर से आ रही है, यह गन्ध इधर से आ रही है, वैसे ही यह शब्द-ध्वनि इधर से आ रही है- ऐसा ही तो बोध होता है। जिस प्रकार घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय में दिग्देश का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं, अपितु अनुमान से होता है, उसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय में भी दिग्देश का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं, अनुमान से ही होता है। जैसे हवा का झोंका स्पर्श तक पहुँचता है, गंध नासिका तक आती है, वैसे ही शब्द भी कान तक पहुँचते हैं। जैसे हवा, गंध आदि को नेत्र से देख नहीं सकते, अनुमान से ही जान सकते हैं, वैसे ही शब्द का भी नेत्र से प्रत्यक्ष नहीं होता है, अनुमान से ही होता है। दिग्देश को कान ग्रहण नहीं करता, क्योंकि दिग्देश शब्दरूप नहीं है। श्रोत्र तो शब्द को ग्रहण करता है, जबकि दिग्देश चक्षु का विषय है, कान, नाक एवं स्पर्शनेन्द्रिय विषय नहीं हैं।387
श्रोत्रेन्द्रिय के साथ शब्द का संस्पर्श हुए बिना ही शब्द का ज्ञान हो जाता हो, तो फिर जब अनुकूल वायु चलती है, तब तो दूर का शब्द भी सुनाई देता है तथा प्रतिकूल वायु चलती है, तब नजदीक का शब्द भी सुनाई नहीं देता है- ऐसा क्यों होता है ? जैसे- रात्रि में दूर से ही ट्रेन की आवाज सुनाई देती है तथा दिन के कोलाहल में नजदीक से भी ट्रेन की आवाज सुनाई नहीं देती है, इसलिए शब्द-ज्ञान भी श्रोत्र के साथ संस्पर्श होने पर ही होता है, अतः, श्रोत्रेन्द्रिय प्राप्यकारी ही सिद्ध होती है।
बौद्ध - इस पर, पुनः बौद्धों का तर्क यह है कि बन्द कमरे में बाहर के शब्द का ज्ञान कैसे हो जाता है ?
जैन - इस संबंध में जैनाचार्य रत्नप्रभ का उत्तर यह है कि जिस प्रकार बन्द कमरे में वायु के सहारे कर्पूर, चन्दन, कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्यों की गंध प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वायु के सहारे शब्द-ध्वनि भी
387 रत्नाकरावतारिका, भाग I (एल.डी.संस्करण), रत्नप्रभसूरि, पृ. 157 से 159 388 रत्नाकरावतारिका, भाग I (एल.डी.संस्करण), रत्नप्रभसूरि, पृ. 159
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