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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
नासिका को गन्ध के बोध के साथ, यह गन्ध अमुक दिशा से आ रही हैऐसा भी बोध होता है। इसी प्रकार, स्पर्शनेन्द्रिय भी वायु के संस्पर्श से यह जान लेती है कि यह शीतल वायु किस दिशा से आ रही है। स्पर्शनेन्द्रिय को वायु का स्पर्श तो होता ही है, किन्तु उस स्पर्श का वायु से संबंध होने पर उसे उस वायु के स्पर्श के साथ दिग्देश का भी बोध होता है कि वन से चन्दन की सुगन्ध के साथ आ रही शीतल वायु का स्पर्श हो रहा है। यदि घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय दिग्देश का ज्ञान रखते हुए भी प्राप्यकारी हैं, तो फिर श्रवणेन्द्रिय दिग्देश का ज्ञान रखते हुए भी प्राप्यकारी क्यों नहीं हो सकती, अर्थात् हो सकती है।385
बौद्ध - इस पर, बौद्ध अपने पूर्वपक्ष की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि पूर्वोक्त गन्ध, स्पर्श आदि में दिग्देश का ज्ञान तो अनुमान से होता है, घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय (त्वगेन्द्रिय) का दिग्देश का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है। घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय तो अनुमान से ही दिग्देश का बोध करती हैं, क्योंकि घ्राणेन्द्रिय गन्ध के आने के बाद और स्पर्शनेन्द्रिय स्पर्श होने के बाद ही क्रमशः नासिका और स्पर्शनेन्द्रिय अपने-अपने विषय के दिग्देश का बोध अनुमान से करती हैं कि गन्ध अमुक दिशा से आ रही है तथा वायु अमुक दिशा से आ रही है, इसलिए घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय दिग्देश का बोध अनुमान से करने से प्राप्यकारी हो सकती हैं, किन्तु श्रवणेन्द्रिय प्राप्यकारी नहीं हो सकती।85
जैन - इसके उत्तर में, आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्ध-मत की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि श्रोत्रेन्द्रिय दिग्देश का ज्ञान अनुमान से करती हैयह मानकर घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के समान ही श्रोत्रेन्द्रिय को भी प्राप्यकारी क्यों नहीं मान लेते हैं ? वर्तमान के शब्द को सुनकर तत्काल अतीतकाल के सुने हुए शब्द का स्मरण कर हम कहते हैं कि यह शंख का शब्द है, यह घंटे की ध्वनि है आदि। यह शब्द-श्रवण स्मरण के व्याप्ति-ज्ञानपूर्वक होने से अनुमान ही तो हुआ, अर्थात् हमने अनुमान से ही जाना कि अमुक दिशा से अमुक प्रकार के शब्द सुनाई दे रहे हैं। इसका अर्थ तो यही हुआ कि श्रवण ने अपने शब्दरूपी विषय का संस्पर्श किया और तत्काल ही शब्द को पहचान लिया। इस ज्ञान से चाहे आप अनुमान को अलग ज्ञान कहकर श्रोत्रेन्द्रिय को अप्राप्यकारी सिद्ध करना चाह रहे हैं,
385 रत्नाकरावतारिका, भाग I (एल.डी.संस्करण), रत्नप्रभसूरि, पृ. 157 386 रत्नाकरावतारिका, भाग I (एल.डी.संस्करण). रत्नप्रभसूरि, पृ. 157
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