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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 271 श्रवणेन्द्रिय उनको, अर्थात् अपने विषय को बिना संस्पर्श किए ही जान लेती बौद्ध - पुनः, बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि श्रोत्रेन्द्रिय अप्राप्यकारी होने के कारण, यह पूर्व दिशा के बादल के गरजने की आवाज है, यह दक्षिण दिशा से चातक पक्षी की आवाज आ रही है- ऐसे भिन्न-भिन्न दिशा से एवं भिन्न-भिन्न स्थानों से आने वाले उन शब्दों का श्रोत्रेन्द्रिय बिना संस्पर्श किए ही बोध कर लेती है, जैसे- यह आवाज कहाँ से आ रही है तो किसकी है ? श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा सर्वानुभवसिद्ध दिग्देश का व्यवहार शब्द से तो नहीं होता है, अतः, यह मानना होगा कि श्रोत्रेन्द्रिय अप्राप्यकारी है। __ अपने पक्ष की सिद्धि हेतु बौद्ध-दार्शनिक पुनः कहते हैं कि जैसे प्राप्यकारी स्वभाव वाली रसनेन्द्रिय शकर के आस्वाद में दिग्देश का ज्ञान नहीं कर सकती, वैसे ही श्रोत्रेन्द्रिय को प्राप्यकारी मानने पर उसके शब्दज्ञान से भी दिग्देश का बोध नहीं होना चाहिए, जबकि शब्द-ज्ञान में दिग्देश का बोध होता है, अतः, वह अप्राप्यकारी है। रसनेन्द्रिय किसी भी वस्तु का स्वाद लेने के बाद ही अपने विषय का बोध करती है, किन्तु दिग्देश तो कोई स्वाद लेने की चीज नहीं है, अतः, रसनेन्द्रिय में दिग्देश का बोध नहीं होता है, जबकि श्रोत्रेन्द्रिय को दिग्देश का बोध होता है, अतः, मानना होगा कि श्रोत्रेन्द्रिय भी अपने विषय से संबंध बनाए बिना दूर से शब्द को ग्रहण कर लेती है। श्रवणेन्द्रिय को दिग्देश का ज्ञान होता है, अतः, श्रवणेन्द्रिय अप्राप्यकारी है। जैन - रत्नाकरावतारिका में आचार्य रत्नप्रभसूरि उपर्युक्त बौद्ध-मत की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय प्राप्यकारी हैं- ऐसा आप (बौद्ध) भी मानते हैं, किन्तु इन दोनों इन्द्रियों को अपने विषयों के दिग्देश का ज्ञान होता है। घ्राणेन्द्रिय यह जानती है कि किस फूल की सुगन्ध किस दिशा से आ रही है, जैसे- पूर्व दिशा से गुलाब की महक आ रही है, पश्चिम दिशा से चन्दन की खुशबू आ रही है। जिस प्रकार घ्राणेन्द्रिय के प्राप्यकारी होते हुए गन्ध के साथ दिग्देश का बोध हो सकता है, तो फिर श्रवणेन्द्रिय को भी प्राप्यकारी होते हुए भी दिग्देश का बोध होता है- यह मानने में आपको आपत्ति नहीं होना चाहिए। 383 रत्नाकरावतारिका, भाग I (एल.डी.संस्करण), रत्नप्रभसूरि, पृ. 156 384 रत्नाकरावतारिका, भाग I (एल.डी.संस्करण), रत्नप्रभसूरि, पृ. 156 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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