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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
अध्याय-9 बौद्धों का श्रवणेन्द्रिय का अप्राप्यकारित्व
बौद्ध-सम्मत अवणेन्द्रिय की अप्राप्यकारिता की समीक्षा
ज्ञातव्य है कि जैनाचार्य रत्नप्रभ ने जहाँ एक ओर नैयायिकों के चक्षु के प्राप्यकारित्व का खण्डन किया, वहीं दूसरी ओर वे बौद्धों के श्रवणेन्द्रिय के अप्राप्यकारित्व का भी खण्डन प्रस्तुत ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका में करते हैं। बौद्धों का मंतव्य है कि श्रवणेन्द्रिय भी अप्राप्यकारी है और वह भी अपने विषय को बिना संस्पर्श किए ही जान लेती है, वहीं दूरस्थ ध्वनि या शब्द को ग्रहण कर लेती है, अर्थात् दूरस्थ शब्द को भी श्रवण कर लेती है, किन्तु जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों के इस मंतव्य से सहमत नहीं हैं। वे नैयायिकों के समान ही श्रवणेन्द्रिय को प्राप्यकारी मानते हैं।
बौद्धों का पर्वपक्ष - श्रवणेन्द्रिय को अप्राप्यकारी सिद्ध करने के लिए बौद्ध यह तर्क देते हैं कि जो इन्द्रिय प्राप्यकारी होती है, अर्थात् अपने विषय को संस्पर्श करके जानती है, वह अपने विषय को, चाहे वह दूर हो या निकट तथा किसी भी दिशा में हो, ग्रहण कर लेती है। जिस प्रकार जैन-दार्शनिकों की मान्यतानुसार चक्षु-इन्द्रिय अपने विषय को संस्पर्श किए बिना जानती है, उसी प्रकार हम बौद्ध-दार्शनिकों की मान्यतानुसार श्रवणेन्द्रिय भी अपने विषय को संस्पर्श किए बिना ही जान लेती है, अतः, वह भी अप्राप्यकारी है। उसे अपने विषय के दिग्देश का ज्ञान होता है, अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय अपने विषय-शब्द के दूरस्थ दिग्देश का ज्ञान होने से वह अप्राप्यकारी है।382 ज्ञातव्य है कि दिग्देश, अर्थात् वस्तु कहाँ है- ऐसा बोध चक्षु और श्रोत्र- दोनों को हो जाता है। नैयायिकों के अनुसार, वस्तु जहाँ भी हो, चक्षु अपने विषय को संस्पर्श करके वस्तु का बोध कर लेते हैं। इसके विपरीत, बौद्धों की मान्यता है कि शब्द जहाँ से भी आते हों,
382 रत्नाकरावतारिका, भाग I (एल.डी.संस्करण), रत्नप्रभसूरि, पृ. 156
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