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________________ 268 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा जैन-दार्शनिक स्मृति कह रहे हैं, वह तो मात्र चित्त-संतति का प्रवाह है। दूसरे, जब बौद्धदर्शन बाह्यार्थ की सत्ता का निषेध करता है, अथवा वस्तुसत् को निःस्वभाव और क्षणिक मानता है, तो फिर उसके दर्शन में स्मृति और प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप नहीं हो सकते हैं। स्मृति का अर्थ है- किसी सत-तत्त्व की स्मृति; किन्तु जब सत् स्वतः ही परिवर्तनशील हो और उसकी सत्ता क्षणिक हो, तो स्मृति कैसे हो? विशेष रूप से जो ज्ञाता चित्त है, यदि वह भी दूसरे क्षण नहीं रहता हो- ऐसी स्थिति में बौद्धों के लिए यह संभव ही नहीं था कि वे स्मृति को प्रमाणरूप स्वीकार करें। इसी प्रकार, जब सत्ता दो समय भी एकरूप नहीं होती है, तो फिर यह वही हैऐसी प्रत्यभिज्ञा कैसे संभव होगी ? क्योंकि प्रत्यभिज्ञा में तो भूतकाल में अनुभूत सत की ही वर्तमान में अनुभूत सत् के साथ समानता का अनुभव किया जाता है। अतः,, बौद्धों के क्षणिकवाद और संततिवाद में स्मृति और प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप नहीं हो सकते। चूंकि बौद्ध-दार्शनिक अपनी तत्त्व-मीमांसा के प्रति सत्यनिष्ठ रहे और इसलिए उन्होंने स्मृति और प्रत्यभिज्ञा को प्रमाणरूप मानने से इंकार किया। इसके विरुद्ध, जैन-दार्शनिक सत को उत्पाद-व्यय के साथ- ग्थ धौव्यात्मक भी मानते रहे, इसलिए उनके यहाँ ये दोनों प्रमाण स्वीकृत किए गए। जहाँ तक तर्क की प्रमाणता का प्रश्न है, बौद्ध-दार्शनिक उसे भी एक स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते। सच तो यह है कि तर्क-प्रमाण किसी सार्वकालिक और सार्वदेशिक-तथ्य की कल्पना करता है। दूसरे शब्दों में, वह सामान्य को स्वीकार करता है और वह सामान्य होता है, जबकि बौद्धदर्शन में सामान्य को केवल विकल्परूप ही माना गया है। उसे । परमार्थ सत्य रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। यदि सामान्य को ही स्वीकार नहीं किया जाएगा, तो फिर व्याप्ति को ही यथार्थ प्रमाणरूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि बौद्धों ने तो अनुमान को भी कवल व्यवहार के स्तर पर ही सत् स्वीकार किया है और जब व सामान्य को ही स्वीकार नहीं करते हैं, तो फिर उनके लिए व्याप्ति, जो कि सामान्य ही है, वह कैसे प्रमाण हो सकती है और ऐसी स्थिति में व्याप्ति को स्थापित करने वाले तर्क या ऊह की प्रमाणता को कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? अतः,, बौद्ध-दार्शनिकों ने जो स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाणरूप नहीं माना है, उसका मुख्य कारण उनकी तर्क-मीमांसा ही है। पुनः, जैनों के लिए स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाण मानने का कारण यह था कि नैयायिकों के समान जैनों ने प्रत्यक्ष प्रमाण के भेद के रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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