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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा हैं, क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम हेतु - बिंदु की टीका में स्पष्ट रूप से लिखा है- "स्मृतिरेवासाबिति न प्रामाण्यमिति' । इसी प्रकार, अर्चट् ने हेतुबिंदु की टीका में विस्तार से प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य का भी निरसन किया है“विस्तरश्च प्रत्यभिज्ञा प्रामाण्य निरास:" । इन आधारों पर यह फलित होता है कि जैन- दर्शनसम्मत स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि के प्रामाण्य का निरसन अर्चट् से ही शुरू होता है। हमारे समीक्ष्य ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका में भी स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि के प्रामाण्य के निरसन हेतु बौद्ध-परंपरा का जो पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया गया है, वह भी अर्चट् की हेतु - बिंदु की टीका के आधार पर ही है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि रत्नप्रभसूरि ने अर्चट् की टीका का अध्ययन किया था और वह उनके समक्ष उपस्थित थी । उन्होंने अर्चट् की टीका को आधार बनाकर ही स्मृति की समीक्षा की है। रत्नप्रभसूरि ने स्मृति के प्रामाण्य के निरसन के लिए अर्चट् की हेतुबिंदु की टीका को ही आधार बनाया है, अतः, यहाँ स्वतंत्र रूप से बौद्धों के पूर्वपक्ष की स्थापना आवश्यक नहीं लगती है, क्योंकि यह कार्य स्वयं रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका में कर दिया है। निष्कर्ष यह सत्य है कि प्रमाण की संख्या को लेकर जैन-दर्शन और बौद्धदर्शन में मतभेद हैं। जहाँ बौद्धदर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान - ऐसे दो प्रमाण मानता है, वहीं जैन- दर्शन 1. प्रत्यक्ष 2. स्मृति 3. प्रत्यभिज्ञा 4. तर्क 5. अनुमान और 6. आगम (शब्द) - ऐसे छः प्रमाण मानता है । इस प्रकार,, बौद्धदर्शन में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और आगम (शब्द) प्रमाण नहीं माने गए हैं । प्रस्तुत अध्याय में हमने इस बात को विस्तार से जानने का प्रयत्न किया है कि बौद्ध - दार्शनिक क्यों स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाणरूप में स्वीकार नहीं करते हैं ? इसका स्पष्ट कारण तो हमारी दृष्टि में बौद्धदर्शन की तत्त्व - मीमांसा ही है । बौद्ध दार्शनिक अपनी ज्ञान-मीमांसा को अपनी तत्त्व - मीमांसा के आधार पर ही उपस्थित करते हैं। जब उनके अनुसार सत्ता क्षणिक है, तो ऐसी स्थिति में स्मृति और प्रत्यभिज्ञा कैसे प्रमाण हो सकते हैं। जिसकी एक क्षण से अधिक सत्ता नहीं है, उसकी स्मृति कैसे हो सकती है ? और पुनः यह कि प्रत्यभिज्ञा के रूप में, यह वही है - ऐसा बोध तो तभी संभव हो सकता है, जब सत्ता में किसी स्थायित्व को माना जाए, जो उत्पन्न होते ही विनष्ट हो गया, वह वही कैसे हो सकता है ? वह तो अन्य ही होगा, अतः, स्मृति और प्रत्यभिज्ञाये दोनों ही सत्ता में धौव्य-पक्ष को माने बिना संभव नहीं होते हैं। जिसे Jain Education International 267 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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