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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा स्मृति की प्रमाणता का निषेध और उसकी समीक्षा प्रमाण - चर्चा के प्रसंग में यह ज्ञातव्य है कि भारतीय-दर्शन में जैन-दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, जो स्मृति को प्रमाणरूप में स्वीकार करके चलता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन- न्याय के प्रारंभिक - काल में स्मृति को स्वतंत्र प्रमाण के रूप में उल्लेखित नहीं किया गया है। जैन - न्याय के प्रथम ग्रन्थ सिद्धसेन के न्यायावतार में स्मृति के प्रमाण होने की कोई चर्चा नहीं है। स्मृति प्रमाणरूप है- इसका सर्वप्रथम उल्लेख दिगम्बर जैनाचार्य अकलंक के नामक ग्रन्थों में ही मिलता है। उसके पूर्व किसी भी जैनाचार्यों ने स्मृति के प्रमाण होने की कोई चर्चा नहीं की है। यहाँ तक की लगभग आठवीं शताब्दी में हुए आचार्य हरिभद्र ने भी अपने किसी भी न्याय के ग्रन्थ में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क के प्रमाण होने की कोई चर्चा नहीं की है। अकलंक के पश्चात् स्मृति के प्रमाण होने की चर्चा श्वेताम्बर - परंपरा में सर्वप्रथम हमें सिद्धसेन के न्यायावतार की सिद्धर्षि की टीका में मिलती है। सिद्धर्षि का काल लगभग नौवीं - दसवीं शताब्दी माना गया है । 266 उपर्युक्त ऐतिहासिक आधारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन - दर्शन में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाण के रूप में स्वीकार करने की परंपरा लगभग आठवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से ही प्रारंभ होती है । यही कारण है कि बौद्ध-न्याय के प्राचीन स्तर के ग्रन्थों तथा दिङ्नाग के न्याय - प्रवेश, वसुबन्धु की वाद - विधि, धर्मकीर्त्ति के प्रमाण - वार्त्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिंदु हेतुबिंदु आदि ग्रन्थों में नहीं मिलती है । यहाँ तक की धर्मकीर्ति के शिष्य धर्मोत्तर ने भी इस संबंध में कोई चर्चा नहीं की है। हमें जो भी बौद्ध - न्याय के मूल ग्रन्थ उपलब्ध हो पाए हैं, उनमें हेतु - बिंदु की अर्चट् की टीका को छोड़कर स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य के निरास करने की कोई चर्चा नहीं मिलती है। सर्वप्रथम अर्चट् के हेतु - बिंदु की टीका में ही स्मृति के और प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य का निरास किया गया है। यद्यपि पं. सुखलालजी संघवी ने अर्चट् को धर्मकीर्त्ति के पश्चात् और धर्मोत्तर के पूर्व सातवीं शती के उत्तरार्द्ध और आठवीं शती के पूर्वार्द्ध में निर्धारित किया है, किन्तु हमारी दृष्टि में अर्चट् को धर्मकीर्त्ति और धर्मोत्तर के बाद का ही मानना होगा, क्योंकि जब जैन - न्याय में स्मृति, तर्क और प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य को स्थापित कर दिया होगा, तभी उसका खंडन संभव था, इसलिए डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि अर्चट् नौवीं शताब्दी के पूर्व तो किसी भी स्थिति में नहीं हो सकते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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