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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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मत में सामान्य असत् है, अतः, जिस प्रकार आप तर्क-ज्ञान को सामान्य का बोधक होने से व्यवहार से भी प्रमाण नहीं मानते हैं, ठीक उसी प्रकार अनुमान को भी असत्-सामान्य का बोधक एवं व्याप्ति-ज्ञान से पराङ्मुख होने के कारण व्यवहार से भी अप्रमाण क्यों नहीं मानते हैं, अर्थात् आप बौद्ध-दार्शनिकों को अनुमान को व्यवहार से भी अप्रमाण मानना चाहिए।
बौद्ध - इसके उत्तर में बौद्ध कहते हैं कि अनुमान असत्-सामान्य का बोध कराने वाला होने पर भी परोक्ष रूप से पदार्थ के साथ संबंध वाला होने से उसको तो व्यवहार से प्रमाण मान सकते हैं, किन्तु तर्क को तो व्यवहार से भी प्रमाण नहीं मान सकते, क्योंकि वह परोक्ष रूप से विशेष रूप पदार्थ से संबंधित नहीं है।381
जैन - अन्त में, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि जब आप अनुमान को परंपरा से पदार्थ का बोधक होने से प्रमाणरूप मानते हैं, तो ठीक इसी प्रकार, तर्क को भी तो परंपरा से सामान्यात्मक-पदार्थ के साथ संबंध वाला होने से उसको भी प्रमाण मान लेना चाहिए।
वस्तुतः तो, अनुमान और तर्क दोनों ही प्रमाणरूप होने से सामान्य को ही विषय करते हैं, तो फिर एक पदार्थ के सम्मुख है, दूसरा पदार्थ से पराङ्मुख है- ऐसा भिन्न कथन करना समुचित नहीं है।
दूसरे, यदि आप 'सामान्य' को सर्वथा असत् कहकर अवस्तुरूप कहते हैं, तो इस पर भी आपको पुनः चिन्तन करना होगा, क्योंकि सामान्य कभी असत्प नहीं हो सकता, क्योंकि पदार्थ (वस्तु) सामान्य-विशेषात्मक ही है। जिस प्रकार शेर के बच्चे के मुख से दाढ़ के मूल भाग को निकालना भी दुष्कर है और निकालकर बेचना तो और भी दुष्कर है, ठीक उसी प्रकार, सामान्य को अवस्तुरूप सिद्ध करना भी दुष्कर है। सामान्य के बिना अकेले विशेष की भी कोई सत्ता नहीं है। नित्य-तत्त्व (ध्रुव-द्रव्य) के बिना प्रतिक्षण विनाशशील पर्यायरूप पदार्थ भी संभव नहीं है, इसलिए 'यह इसके सदृश है- इस प्रकार, से सदृशता का सूचक सामान्य-प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से जाना जाता है, अतः, प्रत्यक्ष प्रमाण के समान ही तर्क और
360 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 403 361 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 403 362 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 403
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