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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा बौद्ध इसके उत्तर में बौद्ध - दार्शनिक कहते हैं कि यद्यपि निश्चय में तो अनुमान भी सामान्य रूप होने से अप्रमाण ही है, किन्तु व्यवहार में अनुमान को प्रमाण माना जाता है। शास्त्र-पुरुषों का भी यही मंतव्य (कथन) है कि सभी अनुमान और अनुमेय धर्म-धर्मीरूप में बुद्धिमात्र से कल्पित होने के कारण व्यवहार से ही प्रमाणरूप मानें गए हैं" । तात्पर्य यह है कि अनुमेय - यह धर्मी है और अनुमान - यह धर्म है, अतः, ये उपचार से कल्पित हैं, अर्थात् आरोपित हैं, वास्तविक (तात्त्विक) नहीं हैं। जिस प्रकार मृग मरीचिका में जल न होने पर भी जल की प्रतीति होती है, वहाँ पर दूर-दूर से दिखाई देने वाला जल धर्मी है, इसमें, जल का ज्ञानयह धर्म है, जो मात्र बुद्धि की कल्पना से आरोपित है, वहाँ वास्तविक जलरूपी पदार्थ नहीं है। ठीक इसी प्रकार, अनुमान और अनुमेय व्यवहार से कल्पित (उपचरित) हैं, यथार्थ नहीं हैं, इसलिए अनुमान को भी व्यवहार से ही प्रमाण मानना चाहिए, किंतु वास्तविक नहीं, अतः आपका तर्क-प्रमाण भी अनुमान -प्रमाण के समान मात्र उपचरित या काल्पनिक ही होगा, यथार्थ नहीं । 357 258 - जैन इस पर, जैन कहते हैं कि जब आप अनुमान को व्यवहार से प्रमाण कहते हैं, तो फिर तर्क को भी व्यवहार से तो प्रमाण मान लो । आपके द्वारा तर्क को सर्वथारूपेण अप्रमाण कहना तो उचित नहीं है । 358 - बौद्ध इसके प्रत्युत्तर में बौद्ध कहते हैं कि यह तर्क तो व्यवहार से भी प्रमाण नहीं है, क्योंकि तर्क तो पदार्थ से सर्वथा भिन्न ही है तथा तर्क से होने वाले सामान्य धर्म का बोध भी व्यवहार से असत् है, अतः, तर्क तो व्यवहार से भी प्रमाणरूप सिद्ध नहीं होता है। 359 जैन इस पर, जैनों का कहना है कि तो फिर आप अनुमान को भी अप्रमाण ही मान लो । तात्त्विक रूप से यदि उसे प्रमाण नहीं मानते हैं, तो फिर व्यवहार से उसे प्रमाण क्यों मानते हैं ? जब आप यह कहते हैं कि तर्कज्ञान तो पदार्थ (व्याप्ति) से सर्वथा भिन्न है, तो आपका अनुमान भी तो पदार्थ से सर्वथा भिन्न है, अर्थात् दो पदार्थों में व्याप्ति-संबंध का बोधक नहीं है। दूसरे, जैसे तर्क-प्रमाण सामान्य का बोधक है, वैसे ही आचार्य धर्मकीर्त्ति के अनुसार अनुमान भी तो सामान्य का ही बोधक है और आपके 357 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 402 358 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 402 'रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 402 359 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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