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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
कैसे बनेगा ? यहाँ यह ज्ञातव्य है कि बौद्धदर्शन के चार सम्प्रदाय हैं- 1. सौत्रान्तिक 2. वैभाषिक 3. योगाचार (विज्ञानवादी) और 4. माध्यमिक (शून्यवादी) । इनमें से तीसरे प्रकार के योगाचार या विज्ञानवादी बौद्ध - दार्शनिक तो मात्र ज्ञान (विज्ञान) को ही सत् मानते हैं, ज्ञेय या बाह्यार्थ को सत् नहीं मानते हैं । माध्यमिक नामक चौथे प्रकार के बौद्ध - दार्शनिक तो सबको शून्यरूप मानते हैं, इसलिए वे दोनों, अर्थात् योगाचार और माध्यमिक ज्ञेय- ऐसे घटपटादि बाह्यार्थी को वस्तुसत् नहीं मानने के कारण धूम और अग्नि में रहे हुए सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक सामान्य सहसम्बन्ध को भी अमान्य करते हैं। सौत्रान्तिक और वैभाषिक- ये दोनों बौद्ध-सम्प्रदाय घट-पट आदि ज्ञेय पदार्थ को मानते हैं, किन्तु सभी को क्षणिक मानने के कारण प्रतिसमय बदलने वाले घट-पट आदि सब पदार्थ विशेष रूप ही हैं, सामान्य कुछ भी नहीं हैं- ऐसी उनकी मान्यता है। इस प्रकार,, बौद्धों के चारों सम्प्रदाय ही सामान्य को वस्तुसत् नहीं मानते हैं। 355
जैन इस पर, जैन- दार्शनिकों का बौद्धों से कहना है कि यदि आप सामान्य को नहीं मानेंगे, तो व्याप्ति-संबंध सिद्ध नहीं होगा और व्याप्ति के अभाव में अनुमान भी प्रमाण कैसे सिद्ध होगा ? क्योंकि अनुमान तो सामान्य का ही बोध कराता है। जैन कहते हैं कि आपके ही 'न्यायबिंदु' नामक ग्रन्थ में धर्मकीर्ति ने कहा भी है कि जो स्वलक्षण से अन्य है, वह सामान्य है और वह सामान्य ही अनुमान का विषय है । पदार्थ दो प्रकार के हैं— 1. स्वलक्षणरूप और 2. सामान्य लक्ष्णरूप । जो स्वलक्षणरूप पदार्थ हैं, वे प्रत्यक्ष - प्रमाण का विषय है और जो इससे भिन्न सामान्य लक्षणरूप हैं, वे अनुमान का विषय हैं। हमारे चक्षु के सामने रहा हुआ 'घट' पदार्थ स्वयं ही स्वयं का बोध कराने रूप स्वलक्षण से युक्त होने के कारण से 'घट' प्रत्यक्ष का विषय है और सभी कालों तथा सभी स्थानों के घटों में रहा हुआ जो 'घटत्व' है, वह सभी में पाया जाने वाला होने से और स्वलक्षण से अन्य होने के कारण सामान्य धर्म से युक्त होने से आपके अनुसार वह अनुमान का विषय है, प्रत्यक्ष का नहीं, किन्तु इस सामान्य का ज्ञान तो व्याप्ति - सम्बन्धरूप तर्क-प्रमाण के माने बिना संभव नहीं है । 356
355 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 401, 402
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'रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 402
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