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________________ 256 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा तो उसे भी आपको प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानना चाहिए, अनुमान को अलग से प्रमाण मानने की क्या आवश्यकता है ?352 बौद्ध - इस पर, बौद्ध-दार्शनिक जैनों द्वारा दिए गए उपर्युक्त तकों की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि आपके उपर्युक्त तर्क उचित नहीं हैं कि 'अनुमान भी लिंगग्राही प्रत्यक्ष को ही विषय करता है। यह तो स्पष्ट है कि लिंगग्राही प्रत्यक्ष ज्ञान भी लिंग (धूम) को ही विषय करेगा, अर्थात धुएँ का ही ज्ञान कराएगा, किंतु अनुमान तो धुएँ की जनक अग्नि (साध्य) का बोधक है। यहाँ अग्निज्ञान और धुएँ का ज्ञान- दोनों के विषय भिन्न-भिन्न हैं, अतः, अनुमान मात्र लिंगग्राही प्रत्यक्ष नहीं है।353 जैन - इसके उत्तर में जैन कहते हैं कि यदि लिंगग्राही प्रत्यक्ष ज्ञान, मात्र लिंग का ही ज्ञान कराता है और अनुमान अग्नि का ज्ञान कराता है, इस प्रकार, प्रत्यक्ष धूम और अनुमान का विषय अग्नि होने से अनुमान को आप प्रत्यक्ष से भिन्न स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं, तो फिर पूर्व में महानस (रसोईघर) आदि में जो धूम-अग्नि के साथ-साथ होने का जो प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ है, वह किसी एक विवक्षित क्षेत्र एवं काल में ही धूम एवं अग्नि का ज्ञान है, किन्तु इसके बाद होने वाला जो तर्करूप विकल्प-ज्ञान (व्याप्तिज्ञान) है, वह तो सभी क्षेत्रों और सभी कालों में होने वाले धूम-अग्नि के सह सम्बन्ध, अर्थात् उनके व्याप्ति-संबंध का ज्ञान है। इस प्रकार, से, जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ अग्नि है, यह अन्वय-व्याप्तिरूप सभी क्षेत्र और सभी काल में होने वाले सामान्य धर्म का बोधक होने से तर्क-ज्ञान भी अनुमान के समान ही स्वतंत्र प्रमाण है। आप बौद्ध इसको बाधित नहीं कर सकते। हमारा यह मानना कि 'तर्क' एक स्वतंत्र प्रमाण है- यह आपके किसी भी तर्क से खंडित नहीं होता है। बौद्ध - इस पर, बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि आप तो सभी देशों और सभी कालों में होने वाले “सामान्य-ज्ञान' को ही तर्क-प्रमाण मानते हैं, किन्तु ऐसा 'सामान्य' तो हमको अमान्य है, क्योंकि हम बौद्धों के अनुसार सामान्य की तो कोई सत्ता ही नहीं है, वह तो आकाश-पुष्प या वन्ध्यापुत्र के समान असत् है। ऐसे असत्-सामान्य को आप तर्क-प्रमाण कैसे मान सकते हैं, अर्थात् ऐसा असत-सामान्य प्रमाण 352 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 400 353 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 400. 401 354 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 401 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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