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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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व्याप्ति-संबंध का बोध भी तर्क-प्रमाण ही है। प्रथम अन्वय-व्याप्ति का और दूसरा व्यतिरेक-व्याप्ति का ज्ञान है। जिन-जिन शब्दों का प्रयोग हम जिस अर्थ में करते हैं, वे शब्द अपने उस वाच्यार्थ का बोध करा देते हैं, जैसेजब घट शब्द उच्चारित करते हैं, तो 'घ' और 'ट' के संयोग से बना हुआ घट शब्द घट नामक वस्तु का वाचक होता है। अब यह घट शब्द अपने वाच्यानुसार पृथु बुध्नोदरादि आकार वाले पदार्थ का ही बोध कराएगा, पटादि पदार्थ का नहीं। तात्पर्य यह है कि पृथु बुध्नोदरादि आकार वाला जो पदार्थ है, उसका बोध घट शब्द ही होगा, अतः, वाच्य वस्तु का वाचक-शब्द के साथ जो संबंध का बोध होता है, उसको भी अन्वयरूप तर्क-प्रमाण जानना चाहिए। इस प्रकार, साध्य-साधन-संबंध के आलंबन वाला, अथवा वाच्य-वाचक-संबंध के आलंबन वाला जो अनुभव या ज्ञान है, वही तर्क-प्रमाण कहलाता है। तर्क-प्रमाण के खंडन हेतु बौद्धों का पूर्वपक्ष -
बौद्ध - बौद्ध-दार्शनिक तर्क की प्रमाणता को स्वीकार नहीं करते हैं। उनका कहना है कि आपके तर्क-प्रमाण को प्रमाण नहीं मानने से प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों की अप्रमाणता की आपत्ति (दोष) क्यों आएगी?41
जैन - इसके उत्तर में जैन कहते हैं कि तर्क को अप्रमाण मानने के कारण अनुमान की प्रमाणता भी नहीं रहेगी, क्योंकि साध्य-साधन के संबंध की प्राप्ति के उपाय का ही अभाव होने से अनुमान की प्रमाणता सिद्ध नहीं होगी। अनुमान की सिद्धि तो व्याप्ति-ज्ञान से होती है और व्याप्ति-ज्ञान की प्राप्ति का उपाय तर्क-ज्ञान है। आप बौद्ध तर्क-ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते हैं, तो तर्क-प्रमाण के अभाव में व्याप्ति-ज्ञान नहीं होगा और बिना व्याप्ति के अनुमान कैसे सिद्ध होगा ? और 'बिना अनुमान के प्रत्यक्ष-प्रमाण भी प्रमाण नहीं कहलाएगा ?42
प्रत्यक्ष-प्रमाण से पदार्थों को जानकर प्रवर्तित होता हुआ प्रमाता संवाद की अनुभूति कर 'यह ज्ञान-प्रमाण है- ऐसा मानता है और विसंवाद की अनुभूति कर 'यह ज्ञान अप्रमाण है- इस प्रकार, की व्यवस्था 'अनुमान'
340 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 395, 396 341 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 396 342 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 397, 396
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