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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
बोध होता है, वही तर्क-प्रमाण है। इस प्रकार, उपलंभ अर्थात् विधि और अनुपलंभ अर्थात् निषेधरूप अनुभव पूर्व में हो जाने के कारण कालान्तर में पर्वतादि में धुएँ को देखने से वहाँ अग्नि होने का जो अनुमान किया जाता है, उसकी उत्पत्ति तर्क से होती है, इसलिए महानस आदि में पूर्व प्राप्त उपलंभ और द्रहादि में पूर्व प्राप्त अनुपलंभ का जो अनुभव है, वही तर्क की प्रमाणता का कारण है। 338 तात्पर्य यह है कि एक के होने पर एक का होना उपलम्भ है, जैसे- धुएँ के होने पर अग्नि का होना। एक के न होने पर दूसरे का नहीं होना अनुपलंभ है, जैसे- अग्नि के न होने पर धएँ का भी न होना। यह, उपलम्भ और अनुपलम्भ के आधार से दो तथ्यों में व्याप्ति-संबंध का जो बोध है, वही जैनों का तर्क-प्रमाण है।
इसके पश्चात्, तर्क का विषय बताते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि तीनों काल में होने वाला साध्य और साधन का, अथवा गम्य और गमक का जो अविनाभाव-संबंध विशेष है, वह व्याप्ति कहलाता है। यह व्याप्ति सभी देश और सभी काल में अविनाभाव-सम्बन्ध रूप होती है। इसका ग्राहक तर्क-प्रमाण है, जैसे- जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है इत्यादि व्याप्तिसूचक वाक्य में जहाँ-जहाँ और वहाँ-वहाँ का अर्थ यह है कि जिस-जिस क्षेत्र में और जिस-जिस काल में धुआँ है, उस-उस क्षेत्र में और उस-उस काल में वहाँ अग्नि होती है। इस प्रकार, सभी देश ओर सभी काल में साध्य अर्थात अग्नि का और साधन अर्थात् धुएँ का जो अविनाभाव-संबंध बताया है, उसे ही तर्क-प्रमाण कहा जाता है। इसी प्रकार, शब्द (वाचक) और उसके अर्थ (वाच्य) के संबंध का जो बोध है, वह भी तर्क कहलाता है। संक्षेप में यदि कहें, तो साध्य-साधन-भाव अथवा वाच्य-वाचकभाव का जो अविनाभाव-संबंध है, वह तर्क-प्रमाण कहलाता है। इस प्रकार, जैनों द्वारा तर्क-प्रमाण के स्वरूप का निरूपण किया गया है।338
यहाँ तर्क-प्रमाण के स्वरूप का निरूपण करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि सामने दिखाई देने वाला धूम अग्नि के होने पर ही दोनों में अन्वयरूप व्याप्ति बनाता है, अर्थात् जहाँ धुआँ होता है, वहाँ अग्नि होती है। ऐसे अन्वयरूप व्याप्ति-सम्बन्ध का बोध तर्क कहलाता है। साथ ही आग के अभाव में धुएँ का भी अभाव होना- ऐसा व्यतिरेकरूप
338 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 395 339 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 395
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