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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा पूर्व में देखी हुई गाय के साथ सदृशता है। इसमें इदम् शब्द का अर्थ यथार्थ ही है । इस प्रकार, से, जहाँ पूर्वानुभूत का स्मरण होता है, वहाँ उसको प्रत्यभिज्ञा ही समझना चाहिए। 335 दूसरे, जिस समय गाय भी सामने हो और गवय भी सामने हो, अर्थात् ये दोनों हमारे सामने ही विद्यमान हों और इन दोनों को हम प्रत्यक्ष-प्रमाण से देख रहे हैं, तो उस समय उन दोनों के मध्य सदृशता की अनुभूति भी 'प्रत्यक्ष ही कहलाएगी, प्रत्यभिज्ञा नहीं कहलाएगी। कारण स्पष्ट ही है कि प्रत्यभिज्ञा में तो अनुभूति और स्मृति- दोनों हेतु बनते हैं, किन्तु यहाँ तो गाय और गवय- दोनों के प्रत्यक्ष होने के कारण मात्र अनुभूति ही कारण है, अतः, वह प्रत्यक्ष ही है, प्रत्यभिज्ञा नहीं है । 338 (ब) जैनों के तर्क-प्रमाण की बौद्धों द्वारा समीक्षा जैनों के प्रस्तुत तर्क - प्रमाण का स्वरूप -- बौद्धों द्वारा प्रत्यभिज्ञा को प्रमाण नहीं मानने की समीक्षा करने के पश्चात् बौद्धों द्वारा तर्क को भी प्रमाण नहीं मानने के सिद्धान्त की समीक्षा भी रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका में की है। प्रस्तुत प्रसंग में परोक्षप्रमाण के तीसरे भेद तर्क की प्रमाणता को 1. कारण, 2. विषय और 3. स्वरूप के द्वारा स्पष्ट किया गया है। उपलम्भ और अनुपलम्भ से होने वाली तीनों काल संबंधी व्याप्ति को जानने वाला यह तर्क-प्रमाण इसके होने पर ही यह होता है इत्यादि आकार वाला ज्ञान तर्क- प्रमाण कहलाता है । इसका दूसरा नाम 'ऊह' भी है | 337 तर्क - प्रमाण का प्रथम आधार कारण-संबंधी बोध है। इसे उपलम्भ, अर्थात् यह होने पर यह होता है कहा जाता है। प्रत्यक्षादि प्रमाणों से इसका ग्रहण होता है। दूसरा, हेतु अनुपलम्भ है, अर्थात् इसके नहीं होने पर यह नहीं होता है, प्रत्यक्षादि प्रमाणां से ग्रहण नहीं होता है। इस प्रकार,, उपलम्भ के ग्रहण से और अनुपलम्भ अर्थात् अभाव से इन दोनों से जिसकी उत्पत्ति होती है, उसे तर्क-प्रमाण कहते हैं। महानस (रसोईघर) में धुएँ के ग्रहण के साथ अग्नि का ग्रहण और तालाब आदि में अग्नि के अनुपलम्भ अर्थात् नहीं होने से धुएँ का अनुपलम्भ या अभाव ऐसा जो 335 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 394 336 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 394 337 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 394, 395 Jain Education International 249 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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