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________________ 252 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा के आधार पर करता है। यह ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण है- ऐसा निर्णय करने की शक्ति मात्र विवेक-ज्ञान से ही संभव नहीं है, क्योंकि उत्पत्ति के समय में तो प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व- ये दोनों ही ज्ञान समान स्वभाव वाले ही होते हैं। संवाद और विसंवाद द्वारा ही उनकी प्रमाणता और अप्रमाणता का निर्णय होता है तथा इसी से अनुमान की प्रमाणता का भी निश्चय हो जाता है। जैन-दार्शनिक कहते हैं कि मृग-मरीचिका के जल में और सरोवर के जल में 'यह जल है- ऐसा ज्ञान तो दोनों में समान रूप से ही होता है, तत्पश्चात स्नान, पान आदि अर्थक्रिया के रूप में जब उसमें हमारी प्रवृत्ति होती है, तब यह निर्णय होता है कि यह वास्तविक जल है या मृग-मरीचिकारूप मात्र भ्रान्ति है। जल के अभाव में स्नान, पान आदि अर्थक्रिया में प्रवृत्ति नहीं होती है, अतः, मृग-मरीचिका के जल में जल संबंधी क्रिया का विसंवाद होने से हम ऐसा अनुमान करते हैं कि यह जल-ज्ञान अप्रमाणरूप है 'जबकि सरोवर के जल में स्नान, पान आदि अर्थक्रिया से संवाद होने से ऐसा अनुमान करते हैं कि यह जल-ज्ञान प्रमाणरूप है। इस प्रकार, से, संवादिता और विसंवादिता- इन दोनों हेतुओं द्वारा ज्ञान के प्रमाण्य अप्रमाण्य का निर्णय हो जाता है, इसलिए हम जैन कहते हैं कि यदि आप तर्क को प्रमाणरूप नहीं मानेंगे, तो व्याप्ति-ज्ञान की अप्रतिपत्ति होने से अनुमान भी प्रमाणरूप नहीं होगा और अनुमान के बिना संवादिता-विसंवादिता के ज्ञान से होने वाला प्रमाणत्व या अप्रमाणत्व का प्रत्यक्ष ज्ञान भी अप्रमाणरूप ही होगा, क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रमाण्य का निश्चय करने हेतु अनुमान की जरूरत होती है और अनुमान के लिए व्याप्ति-ज्ञान की जरूरत होती है, व्याप्ति-ज्ञान के लिए तर्क की जरूरत होती है। इस प्रकार, यदि आप अनुमान के मूल आधार तर्क के प्रमाण्य का ही निषेध कर देंगे, तो फिर व्याप्ति-ज्ञान, अनुमानज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानऐसे एक-एक करके सभी अप्रमाण हो जाएंगे, जिससे आप पर सर्वशून्यता के दोष का आरोपण होगा। पुनः, आप बौद्ध अनुमान और प्रत्यक्ष के बिना प्रमेय की व्यवस्था भी कैसे कर सकेंगे ? क्योंकि तर्क के बिना व्याप्ति नहीं, व्याप्ति के बिना अनुमान नहीं, अनुमान के बिना प्रत्यक्ष नहीं और प्रत्यक्ष के बिना प्रमेय भी नहीं इत्यादि सर्वशून्यता आ जाएगी, किन्तु यह 543 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 397 344 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 397, 398 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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