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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 247 आशय यही है कि पदार्थ को यथार्थ माने बिना उसका हेतु या लिंग के साथ तादात्म्य और तदुत्पत्ति-रूप संबंध बनता नहीं है, जिससे व्याप्ति-सम्बन्ध की स्थापना हो सके। हम जैन आप बौद्धों से यह पूछते हैं कि यदि आप व्याप्ति में जो तादात्म्य और तदुत्पत्ति-संबंध मानते हैं, वह क्या कल्पनाजन्य मानते हैं ? इस आधार पर तो अग्नि में जो दाहकता का गुण है, क्या वह गुण कल्पनाजन्य है ? साथ ही, अग्नि से धुएँ की उत्पत्ति भी होती है, अतः, अग्नि और धुएँ में तदुत्पत्ति-संबंध भी है ? इस प्रकार, तादात्म्य और तदुत्पत्ति- ये दोनों ही संबंध यथार्थ हैं, काल्पनिक नहीं हैं। कल्पना से कोई संबंध बनता भी नहीं है। इन दोनों प्रकार के संबंधों से युक्त लिंग (धुआँ), अर्थ (अग्नि) को यथार्थ माने बिना कोई संबंध संभव ही नहीं है। हेतु या लिंग (धुएँ) के बिना लिंगी (अग्नि) का ज्ञान होता नहीं है। लिंग के ज्ञान के बिना पूर्व में अनुभूत साध्य-साधन के संबंध का भी स्मरण नहीं होता है और पूर्व-संबंध के स्मरण के बिना व्याप्ति नहीं बनती है, व्याप्ति-संबंध के बिना अनुमान भी संभव नहीं है। इसका फलितार्थ यह है कि- 1. अर्थ (अग्नि) से लिंग (हेतु) के तदुत्पत्ति-संबंध का ज्ञान 2. लिंग (धुएँ) के द्वारा लिंगी (अग्नि) का ज्ञान तथा 3. लिंग-लिंगी के पूर्व-संबंध का स्मरण और 4. पूर्व-स्मरण द्वारा व्याप्ति-संबंध का ज्ञान और व्याप्ति-ज्ञान से अनुमान होता है। अनुमान की यही एक प्रक्रिया या क्रम है। इस क्रम के चलते क्रमशः अग्नि और धुएँ में रहने वाला अग्नित्व और धूमत्व-रूप सामान्य का विकल्प अग्नि और धूम-रूप . स्वलक्षण में यथार्थ-संबंध वाला होने से जैसे अनुमान-प्रमाणरूप बनता है, इसी प्रकार सादृश्य और वैदृश्य तथा परमाणु-प्रचयत्व-विशेष आदि को आपके द्वारा यथार्थ नहीं मानने पर भी सादृश्यादि का स्वलक्षण से संबंध होने से प्रत्यभिज्ञा भी प्रमाणरूप कैसे नहीं बनेगी ? अर्थात् प्रत्यभिज्ञा भी प्रमाणरूप ही सिद्ध होगी। बौद्ध - इस पर, बौद्धों का जैनों से प्रश्न है कि 'यह इसके समान है इस प्रकार, से उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रत्यभिज्ञा-प्रमाण कहलाता है ? या प्रत्यक्ष-प्रमाण कहलाता है ? अथवा दोनों से भिन्न अन्य कोई प्रमाण कहलाता है ? इसे स्पष्ट करें। 331 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 392, 393 332 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 393 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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