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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा काल्पनिक मानेंगे, तो फिर नियतरूप से जो वासना उत्पन्न होती है, वह घटित ही नहीं होगी, अतः आप बौद्धों से हमारा अनुरोध है कि जिस प्रकार नील, पीत आदि परमाणु- विशेष यथार्थ हैं, अर्थात् तथ्यरूप हैं- ऐसा मानते हो, उसी प्रकार आपको सादृश्यादि को भी तथ्यरूप हैं- ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिए, अन्यथा आपके कथन में प्रामाणिकता नहीं मानी जाएगी | 330 246 इस प्रकार, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि सादृश्य और वैदृश्य आदि सिद्ध होते हुए जब गवय या महिष दिखाई दे, तब पूर्व में देखी हुई गाय के आकार के साथ संकलना करके कि यह गवय पूर्व में देखी हुई गाय के समान है और यह महिष पूर्व में देखी हुई गाय से विसदृश (विजातीय) है - ऐसा बोध होगा। यह बोध तो पूर्वापर-संकलना के आधार पर होने से ही प्रत्यभिज्ञा - प्रमाणरूप कहलाता है। यदि हमने पूर्व में कभी गाय या महिष को देखा हो, उसके पश्चात् फिर कभी गाय या महिष को देखते हैं, तो हम कहते हैं कि 'यह गवय है' और 'यह महिष है । मात्र इतना ही वर्त्तमानकालीन - ज्ञान होता है, किन्तु इसमें हमने पूर्व में देखी हुई गाय के साथ में संकलना नहीं की, तो वहाँ पर वह प्रत्यभिज्ञा नहीं होगी, अपितु वह चाक्षुष -- ज्ञान होने से प्रत्यक्ष - प्रमाण ही कहलाएगा। तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष में सिर्फ वर्तमान की ही वस्तु का बोध होता है, किन्तु प्रत्यभिज्ञा में भूत एवं वर्त्तमान- दोनों का ही बोध होता है । पुनः, जैनाचार्य बौद्धों से कहते हैं कि यह ठीक है कि आप बौद्धों के अनुसार 'सादृश्य - वैदृश्य आदि को बाह्य-पदार्थरूप नहीं मानें या काल्पनिक ही मानें, तो भी प्रत्यभिज्ञा तो अनुमान के समान प्रमाणरूप ही सिद्ध होगी, क्योंकि अनुमान द्वारा जानने योग्य 'अग्नित्वादि सामान्य भी आपके अनुसार तो काल्पनिक ही है, वह घट-पट के समान दृश्यमान बाह्य-पदार्थरूप नहीं है, अथवा जैसे भूमि पर घट-पट बाह्य रूप से दृष्टिगोचर होते हैं, उसी प्रकार 'अग्नित्व' आदि सामान्य गुण धर्म तो कहीं पर भी दिखाई नहीं देते, जो दिखाई देता है, वह अग्नित्व न होकर अग्नि- विशेष ही है। इस आधार पर, 'यत्र - यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः' अर्थात् जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है- ऐसा सामान्य-रूप व्याप्ति - संबंध नहीं बनता है, किन्तु फिर भी धूम से अग्नि का ज्ञान तो होता ही है और आप बौद्ध भी उसको प्रमाणरूप मानते ही हैं। आप बौद्धों का कहने का 330 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 392 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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