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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
जल काल्पनिक होता है, तो उसके संबंध में यह जल मीठा है, यह जल खारा है - ऐसा भेदोल्लेख करना भी संभव नहीं होता है, क्योंकि जब पानी ही नहीं होगा, तो खारे और मीठेपन की बात ही कैसे संभव होगी ? इसी प्रकार, जब परमाणु ही मिथ्यारूप या काल्पनिक होंगे, तो यह परमाणु नीला है, यह पीला है- ऐसा उल्लेख भी कैसे होगा ? अर्थात् नहीं होगा । 327
जैन इस पर जैन कहते हैं कि यदि ऐसा ही है, तो फिर सादृश्य और वैदृश्य आदि में भी भेद ( भिन्नता) का उल्लेख कैसे होगा ? अर्थात् गवय की गाय से सदृशता भी मिथ्या या काल्पनिक ही होगी, फिर भी वहाँ सदृशता का ही विकल्प क्यों होता है ? इसी प्रकार महिष (भैंस) में गाय का वैदृश्य भी मिथ्या या काल्पनिक ही होने से वहाँ पर वैदृश्य का ही विकल्प क्यों होता है ? तब तो गवय से गाय की वैदृश्यता का और महिष से गाय की सदृशता का भी अनुभव होना चाहिए, जो कभी होता ही नहीं है | 328
बौद्ध इस पर बौद्धों का कहना है कि सादृश्य और वैदृश्य आदि काल्पनिक होते हुए भी इन दोनों के मध्य विकल्प (भेद) की वासना (संस्कार) होने से उस वासना (संस्कार) के कारण ऐसा उल्लेख होता है, किन्तु नील - पीत आदि परमाणुओं को भी तथ्यरूप माने बिना उन्हें मात्र काल्पनिक मानकर वासना के बल से ही उनमें 'यह नील है और यह पीत हैं- ऐसा भेद (विकल्प) करना संभव नहीं होता है, क्योंकि नील- परमाणुओं में पीत की और पीत - परमाणुओं में नील की वासना कदापि संभव नहीं होती है, परन्तु नील में नील की और पीत में पीत की वासना ही संभव होती है, इसलिए नियत रूप से होने वाली वासना का उद्बोधक ( ज्ञापक) किसी न किसी बाह्य पदार्थ को तो यथार्थ मानना ही पड़ेगा न ? बाह्यार्थ को तथ्यरूप माने बिना नियत-रूप वाली वासना का जन्म कैसे होगा ?329
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जैन इस पर जैन कहते हैं कि आपके इस कथन से कि 'बाह्य-पदार्थ जो तथ्यरूप न हो, तो नियत - रूप से वासना भी नहीं होगी, हम जैनों का तो कोई विरोध नहीं है, परन्तु हमारा कहना है कि परमाणुओं के समान सादृश्यादि को भी आपको तथ्यरूप स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि सादृश्यादि को भी यदि वास्तविक पदार्थरूप नहीं मानेंगे और मात्र
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327 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 391 328 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 391 329 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 391
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