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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
बताइए कि यदि आपका पदार्थ सदृशता, या विसदृशता, या परमाणु-प्रचयत्वरूप नहीं है और मात्र नील - पीतादि प्रत्येक परमाणु रेती के कण के समान स्वतंत्र रूप ही हैं, तो फिर यह बताइए कि आपने सादृश्य-वैसादृश्य या प्रचयत्व - विशेष आदि एक-एक पक्ष की स्थापना करके उन सबका उत्तर क्यों दिया ?324
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बौद्ध इस पर बौद्ध - दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि सादृश्य-वैसादृश्य और परमाणु -प्रचयत्व इत्यादि पक्षों की मानसिक - कल्पना मात्र आप जैनों को समझाने तक ही सीमित थी, किंतु वह घट-पट के समान तात्त्विक ज्ञान से युक्त बाह्य-पदार्थरूप कुछ भी नहीं थी । तात्पर्य यह है कि जब आप हमारे सिद्धान्तों पर दोष बता रहे, तो हमने कहा कि ठीक है, नए-नए विकल्पों की कल्पना करके अपने पर लगाए गए दोषों का निवारण किया जाए, इसी हेतु हमने नए-नए सिद्धान्तों की स्थापना की, किन्तु जब आप जैनों ने हमारे द्वारा प्रस्तुत सादृश्य-वैसादृश्य एवं प्रचयत्व - विशेष - इस प्रकार, हमारे एक - एक पक्ष को दूषित ( बाधित) बता दिया, तो फिर हमने कहा कि हम सदृशता आदि-रूप बाह्यार्थ की सत्ता को तो स्वीकार करते ही नहीं हैं । 325
जैन इस पर, जैन बौद्धों से कहते हैं कि जब जिस प्रकार आपने अपना बचाव करने के लिए पूर्व-काल्पनिक सादृश्य- वैसादृश्य और परमाणुओं के प्रचयत्व - विशेष के जो उत्तर दिए थे, उनके समान ही आपका यह उत्तर कि 'नील और पीत आदि वर्ण वाले प्रत्येक स्वतंत्र परमाणु तथ्यरूप हैं- ऐसे उत्तर-रूप जो आपने अन्तिम पक्ष स्वीकार किया है, वह अन्तिम पक्ष भी पूर्वपक्षों के समान ही काल्पनिक है, ऐसा क्यों नहीं मान लेते हो ? उस पक्ष को तथ्यरूप मानने की क्या आवश्कता है ? अर्थात् आप बौद्धों को नीलपीतादि स्वतंत्र परमाणुओं को भी काल्पनिक ही भान लेना चाहिए 1 328
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बौद्ध इसके समाधान में बौद्ध - दार्शनिक कहते हैं कि यदि बाह्य - परमाणुओं को, जो यथार्थ पदार्थरूप स्वीकार न करें और मात्र काल्पनिक मान लें, तो फिर तो ये परमाणु पीत ही हैं और ये परमाणु नील ही हैं- ऐसे भेद का उल्लेख कैसे संभव होगा ? जैसे मृग मरीचिका का
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324 'रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 390
325 'रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 390, 391
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रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 391
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