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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा सादृश्य-प्र - प्रत्यभिज्ञान है । वे इन दोनों प्रकार के प्रत्यभिज्ञानों को स्मृति एवं प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। 315 बौद्ध प्रत्यभिज्ञान के इन दोनों प्रकारों को प्रमाण नहीं मानने वाले प्रतिपक्षी बौद्ध - दार्शनिकों का कथन है कि एकत्व - प्रत्यभिज्ञा का जो स्वरूप 'वही यह है के रूप में निर्दिष्ट किया गया है, उसमें 'वही' पद अतीत का ज्ञान कराने से स्मृतिरूप है तथा 'यह पद वर्त्तमान का ज्ञान कराने से प्रत्यक्षरूप है। इस प्रकार, प्रत्यभिज्ञान कोई पृथक् प्रमाण नहीं है, अपितु इसमें प्रत्यक्ष और स्मृति दो ज्ञान हैं। सादृश्य - प्रत्यभिज्ञान में भी इसी प्रकार 'वैसा ही यह स्मृति का विषय है तथा यह है- यह प्रत्यक्ष का विषय है, इसलिए प्रत्यभिज्ञान को पृथक् प्रमाण मानने की कल्पना व्यर्थ है ,316 जैन जैन- दार्शनिक विद्यानन्द ने प्रतिपक्षी बौद्धों को उत्तर देते हुए प्रतिपादित किया है कि स्मरण और प्रत्यक्ष से जन्य अतीत और वर्त्तमान में अवस्थित एक द्रव्य को विषय करने वाला प्रत्यभिज्ञान सुप्रतीत है। स्मृति द्वारा 'वह' का ज्ञान होता है तथा प्रत्यक्ष द्वारा 'यह' का ज्ञान होता है, जबकि प्रत्यभिज्ञान इन दोनों के संकलनात्मकरूप एकत्व का बोधक होता है। जो मैं बालक था, कुमार हुआ, युवा हुआ, मध्यम हुआ, वही मैं अभी वृद्ध हूँ, ऐसी प्रतीति सबको होती है। प्रत्यभिज्ञान को स्वीकार किए बिना पूर्वोत्तर क्षणों में संतान की एकता भी सिद्ध नहीं की जा सकती । इसी प्रकार, पूर्वापर वस्तुओं में सादृश्य का ज्ञान करने के लिए प्रत्यभिज्ञान को प्रमाणरूप में स्वीकार करना आवश्यक है । 317 बौद्ध इसके उत्तर में बौद्ध कहते हैं कि पूर्वापर - क्षण में 'सादृश्य' नाम का कोई भी पदार्थ नहीं है, क्योंकि पूर्वक्षण से उत्तरक्षण तक तथा उस उत्तरक्षण से फिर अगले उत्तरक्षण तक के समस्त पदार्थों को हम विलक्षण - रूप ही मानते हैं, इसलिए सादृश्य नाम का कोई पदार्थ ही नहीं है तो फिर सदृशता ( समानता) को बताने वाली प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप कैसे सिद्ध होगी? अर्थात् नहीं होगी । 318 - 241 डॉ. धर्मचंद जैन पृ. 312 315 देखें - बौद्ध- प्रमाण - मीमांसा की जैन- दृष्टि से समीक्षा 316 देखें - बौद्ध-प्रमाण मीमांसा की जैन- दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचंद जैन, पृ. 312 देखें - प्रमाण परीक्षा, पृ. 42 318 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 389 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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