SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 240 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा बौद्ध - इसके उत्तर में बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक समय में नवीन-नवीन ही उत्पन्न होते हैं। चाहे गाय हो, चाहे महिष, किंवा अन्य कोई भी पदार्थ हो, वे एक क्षण के पश्चात् दूसरे क्षण में वही नहीं रहते हैं, अर्थात् दो क्षण भी स्थायी नहीं रहते हैं, तो यह वही गाय है, यह वही जिनदत्त है, इत्यादि में नित्यता (ध्रुवता) का ज्ञान सत्य कैसे हो सकता है ? इसलिए नए-नए उत्पन्न होने के स्वभाव वाले पदार्थों में जो सादृश्य ज्ञान होता है, अर्थात् सामान्य रूप जो ज्ञान होता है, उनकी वह एकता ही भ्रान्ति (मिथ्या) ज्ञान का कारण है, अर्थात सादृश्यता ही भ्रान्ति का कारण है। जैन - बौद्धों के इस तर्क की समीक्षा करते हुए जैनाचार्य रत्नप्रभसरि कहते हैं- अच्छा आप यह बताइए कि पूर्वक्षण और उत्तरक्षण क्षणिक होने से दोनों ही भिन्न-भिन्न हैं। इन दोनों के मध्य एकतारूप-ज्ञान कराने वाला 'सादृश्य' नामक कोई पदार्थ है या नहीं है ? यदि आप सादृश्य नाम का पदार्थ मानते हैं, तो फिर तो पूर्वक्षण और उत्तरक्षण के साथ सादृश्य होगा। इसका तात्पर्य यह होगा कि पूर्वापर क्षणों-क्षणों के मध्य सदृशता (समानता) बताने वाली प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप सिद्ध होगी। परिणाम यह होगा कि मुग-मरीचिका का जल अप्रमाणरूप है, क्योंकि वहाँ पर स्वाभाविक जल तो है नहीं, परन्तु सरोवर, नदी और समुद्र आदि का जल-ज्ञान तो प्रमाणरूप है, अर्थात् वहाँ पर वास्तविक विषय रूपी जल है। ठीक इसी प्रकार आप बौद्धों ने पूर्वापर-क्षणों के क्षणिक होते हुए भी इन दोनों के मध्य 'सादृश्य' (समानता) नामक पदार्थ को स्वीकार किया है, इसलिए उसको विषय करके उत्पन्न होने वाला सादृश्य ज्ञान स्वविषय का निश्चयात्मक होने से प्रत्यभिज्ञा भी प्रमाणरूप ही सिद्ध होगी। जैनाचार्य विद्यानन्द द्वारा भी प्रत्यभिज्ञा की प्रनाणता का स्थापन - डॉ. धर्मचन्द जैन 'बौद्ध-प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा' में लिखते हैं कि विद्यानन्द ने दो प्रकार के प्रत्यभिज्ञान का निरूपण किया है- 1. एकत्व-प्रत्यभिज्ञान एवं 2. सादृश्य-प्रत्यभिज्ञान। 'वही यह है इस प्रकार, का ज्ञान एकत्व-प्रत्यभिज्ञान तथा यह वैसा ही है' ऐसा ज्ञान 213 रत्नाकरावतारिका भाग II रत्नप्रभसूरि पृ. 388 314 रत्नाकरावतारिका भाग II रत्नप्रभसूरि पृ. 388, 389 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy